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उपासना-विषयक समाधान
२४१ बिलकुल ही परतन्त्र हैं ? और क्या उनकी भक्ति महज टकसालीएक ही साँचेमे ढली हुई—या जाब्तापूरी ही होती है ? यदि ऐसा है तव तो उन्हे भक्त और उनकी उस भक्तिको भक्ति कहना, भक्त तथा भक्ति शब्दोका दुरुपयोग करना है, और यदि वैसा नही है, बल्कि भक्तजन अपनी भक्तिको पुष्ट करने, चरितार्थ बनाने और विकसित तथा पल्लवित करनेके लिये अनेक प्रकारकी नई-नई योजनाएँ तैयार कर सकते हैं और इसलिये उपासनाके ढगका कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक एक निर्दिष्ट रूप नही हो सकता, तो फिर मेरे 'कल्पित' शब्दपर इतना अधिक चौकनेकी क्या जरूरत थी ? क्या इतनेपर भी बडजात्याजी कल्पितका अर्थ केवल "मनगढन्त" ही समझते है ? यदि ऐसा है तो मैं नमूनेके तौरपर कुछ पद्य आपके सामने रखता हूँ और फिर पूछता हूँ कि इनमे प्रयुक्त हुए 'कल्पित' शब्दका अर्थ क्या 'मनगढन्त' ही है ?
सुरेन्द्रपरिकल्पित बृहदनयसिंहासन, तथाऽऽतपनिवारणत्रयमथोल्लसच्चामरम् । वश च भुवनत्रयं निरूपमा च नि सगता, न सगतमिद द्वय त्वयि तथापि सगच्छते ॥६॥
-पात्रकेसरीस्तोत्र । मनिभ्यः शाकपिण्डोऽपि भक्त्या काले प्रकल्पितः । भवेदगण्यपुण्यार्थ भक्तिश्चिन्तामणियथा ।।
-यशस्तिलक या च पूजा मुनीन्द्राणा नित्यदानानुषङ्गिनी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पित ॥ २॥
--आदिपुराण । यदि वडजात्याजीकी समझके अनुसार 'कल्पित' का अर्थ मनगढन्त ही है तो उन्हे यह कहना होगा कि पात्रकेसरीस्तोत्रवाले