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युगवीर-निवन्धावली
हैं-भगवान्ने नही कहा किन्तु भक्तजनोने स्वय ही उन क्रियाओको कल्पित किया है, यह वात उन्हे खासतौरपर असह्य हो पडी है और उनका चित्त स्थिर रहा मालूम नही होता। जान पडता है उन्होने इस लेखको विकृत-दृप्टिसे अवलोकन किया है, इसीसे भगवान्की शिकायत, भगवान्को दोप लगानेका अभिप्राय, मदिर-मूर्तियो और दान-पूजादिक क्रियाओका निपेध तथा खण्डन और लेखककी वदनीयती आदिकी न मालूम कितनी विनासिर-पैरकी बाते उन्हे इसमें नजर आने लगी हैं, और साथ ही, जिनेन्द्रके उपदेश-आदेशमे भेद आदिकी न जाने कितनी व्यर्थ कल्पनाएँ उत्पन्न होकर उनके सामने नाचने लगी हैं। अन्यथा-सम्यकदृष्टि अथवा अविकृत-ज्ञाननेत्रसे अवलोकन करनेपर-ये सब बाते उन्हे लेख भरमे कही भी दिखलाई न पडती और न इतना भ्रान्तचित्त ही होना पडता जिससे आप एकदम सारे लेखका ही-सिरसे पैरतक-विना सोचे-समझे निषेध करने बैठ जाते और वर्तमान उपासना-विधिकी किसी भी त्रुटिको त्रुटि अथवा दोपको दोप मानकर न देते। और तो क्या, आपकी यह भ्रान्तचित्तता यहा तक बढी है कि उसने लेखकके-द्वारा प्रयुक्त हुए 'कल्पित' शब्दके अर्थमे भी आपको भ्रान्ति उपस्थित कर दी है और आप गालवन यह समझने लगे हैं कि वह झूठे अथवा बनावटी अर्थमे प्रयुक्त हुआ है, इसीसे 'मनगढन्त' शब्दके-द्वारा आपने उसे उल्लेखित ( नामाङ्कित ) किया है और आश्चर्यके साथ यह वाक्य भी कहा है कि "मुस्तारजीने 'अनुष्ठितः' का अर्थ 'कल्पित किया' लिखा सो न जाने अनुष्ठानका अर्थ कल्पना कहाँसे कर लिया ।' शास्त्री बनारसीदासजी भी इस शब्द-प्रयोगपर कुछ चौंके हैं और उन्होने कल्पितको 'स्वेच्छा कल्पित' लिखकर