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उपासना-विषयक समाधान
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आचार्योंके समयकी बनी हुई है। परन्तु ऐसा कुछ भी सिद्ध नही किया और न वह पूजा उतनी अधिक प्राचीन है। अत. उक्त श्लोकका उद्धृत करना किसी तरह भी उपयुक्त अथवा बडजात्याजीके साध्यकी सिद्धि करनेवाला मालूम नहीं होता। ___एक बात यहाँपर और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि मैने अपने लेखमे कही भी यह नही लिखा था कि पूजनकी पुस्तके नाना छदो अथवा कवितामे न होना चाहिए और न यही प्रतिपादन किया था कि गाने-बजानेके साथमे पूजा-भक्ति नहीं बन सकती या पूजा-भक्तिके साथमे गाने-बजानेका सर्वथा निपेध है, बल्कि वर्तमान लोक-रुचि और लोक-प्रवृत्तिका उल्लेख करते हुए इतना लिखा था कि
"आजकल वे ही पूजा-पुस्तके ज्यादा पसद की जाती हैं जो अपनी छद सृष्टिकी दृष्टिसे गाने-बजानेमे अधिक उपयोगी होती है, चाहे, उनका साहित्य और उसमे उपासनाका भाव कितना ही घटिया क्यो न हो। लोगोका ध्यान प्राय स्वर, ताल और लयकी ओर ही विशेप रहता है—अर्थाववोधके-द्वारा परमात्माके गुणोमे अनुराग वढानेकी ओर नही। इसीसे कितनी ही बार पूजकोको-पूजा करने-करानेवालोको-अनाप-सनाप ऐसे अशुद्ध पाठोका उच्चारण करते हुए देखा गया है जिनसे अर्थका विलकुल ही अनर्थ हो जाता है अथवा स्तुतिके स्थानमे भगवान्की निन्दा ठहरती है। परन्तु उन स्वर, तालमे मस्त बुद्धओको उसका कुछ भी भान नही होता। उपासनाके ढगकी यह कितनी विचित्र स्थिति है।"
और इसपरसे सहृदय पाठक स्वय समझ सकते हैं कि इसमे दोनो वातोका कोई निपेव नहीं है और न हो सकता है, क्योकि जिन छदोमे घटिया साहित्य लिखा जाता है उन्हीमे अच्छा