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जयजिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार २२१ गृहस्थो अथवा पाक्षिक श्रावकोके लिये नही ।' और समाजमे अधिकाश सख्या साधारण गृहस्थो तथा पाक्षिक श्रावकोकी ही पाई जाती है, प्रतिमाधारी श्रावक बहुत ही थोडे हैं, उनकी सख्या इनी-गिनी हैं और इसलिये सर्वसाधारण जैनियोको परस्परमे 'इच्छामि' कहनेके लिये प्रेरित करना आशाघरजीके इस वाक्यके भी अनुकूल मालूम नही होता। उनके कथनानुसार प्रतिमाधारी श्रावकोके लिये ही यह विधि होनी चाहिये-दूसरे गृहस्थ इसके अधिकारी नहीं हैं।
इस सब कथनसे सर्वसाधारण जैनियोके लिए 'जुहारु' तथा 'इच्छाकार' मे आजकल कोई उपयुक्तता मालूम नही होती। प्रत्युत इसके, जयजिनेन्द्रका व्यवहार उनके लिये बहुत ही उपयोगी तथा समयानुकूल जान पडता है । युक्ति अथवा आगमसे भी उसमे कोई विरोध नही आता । और इसलिए सबोको आमतौरपर हृदयसे 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार करना चाहिये और उसे अपने लोक-व्यवहारका एक ऐसा सामान्य जातीय-मत्र बना लेना चाहिये जो सबोको एक सूत्रमे बांध सके। उनके जयघोषमे परस्पर प्रेमका सचार तथा बन्धुत्वका विकास होना चाहिए और साथ ही जगतको उसके हितका आश्वासन मिलना चाहिये । एक भट्टारक, क्षुल्लक, ऐलक या ब्रह्मचारीको यदि कोई गृहस्थ 'जयजिनेन्द्र' कहता है तो इससे उनके अप्रसन्न होनेकी कोई वजह नही हो सकती। उन्हें अपने उपास्य देव 'जिनेन्द्र' का जयघोष सुनकर खुश होना चाहिए और उत्तरमे बिना किसी सकोचके जिनेन्द्रका जयघोष करके अपने उस आनन्दको व्यक्त करना चाहिये अथवा उस जयघोष-द्वारा अपनी जातीयताकी