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जयजिनेन्द्र, जुहार और इच्छाकार
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वैसा होनेकी इच्छा आदिको व्यक्त करनेका विधान किया गया है ।
इस तरहपर तीन आचार्यों के वाक्योसे यह स्पष्ट है कि 'इच्छाकार नामके समाचारका विधान प्राय क्षुल्लको अथवा ११ वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकोके लिए है - साधारण गृहस्थ उसके अधिकारी तथा पात्र नही हैं ।' जान पडता है यही वजह है, जो समाजमे इच्छाकारका व्यवहार इतना अधिक अप्रचलित है अथवा यो कहिये कि समाज अपने व्यवहारमे उससे परिचित नही है और इसीलिये सर्वसाधारण जैनियोमे अब इच्छाकारके सर्वत्र व्यवहारकी प्रेरणा करना कहाँ तक युक्तिसंगत तथा अभिवाछनीय हो सकता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । हाँ, उत्कृष्ट श्रावक परस्परमे इच्छाकारका व्यहार करें तो वह ठीक है, उसमे हमे कोई आपत्ति नही और न उससे जयजिनेन्द्रकी सर्वमान्यता - मे कोई अन्तर पडता है ।
यहॉपर मैं एक वाक्य और भी प्रकट कर देना उचित समझता हूँ और वह १३ वी शताब्दी के विद्वान प० आशाधरजीके सागारधर्मामृतका निम्न वाक्य है
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स्वपाणिपात्र वात्ति, सशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकार समाचार मिश्र सर्वे तु कुर्वते ॥ ७-४९ ॥
यह पद्य ११वी प्रतिमा धारक उत्कृष्ट - श्रावककी चर्याका कथन करते हुये दिया गया है और इसके उत्तरार्धमे यह बतलाया गया है कि सव आपसमे 'इच्छाकार' नामका समाचारका व्यवहार करते हैं ।' परन्तु वे 'सव' कौन ? ग्यारह प्रतिमाओके धारक सपूर्ण श्रावक या ग्यारहवी प्रतिमाके धारक वे तीनो प्रकारके