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जयजिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार २१५ जुहारुकी अपेक्षा प्राचीन न होकर अर्वाचीन है तो इतनेपरसे ही क्या हो गया ? क्या प्राचीन न होनेपर उसकी समीचीनता नष्ट हो गई ? वह अच्छा, श्रेष्ठ, सच्चा और समुचित व्यवहार नही रहा ? और क्या प्राचीन सभी प्रवृत्तियाँ उपादेय होती हैं ? ससारी जोबोकी प्रवृत्तियाँ अनादि कालमे मिथ्यात्वकी
ओर हैं-सम्यक्त्वकी प्राप्ति उन्हे बादको होती है। क्या मिथ्यात्व-प्रवृत्तिके प्राचीन होनेसे ही उसे नही छोडना चाहिये अथवा सम्यक्त्वको नही ग्रहण करना चाहिये ? यदि ऐमा कुछ नहीं है, बल्कि प्राचीनतापर समीचीनताको अधिक महत्त्व प्राप्त है, पुरानी प्रवृत्ति उपयुक्त न होने अथवा देश-कालानुसार उपयुक्त न रहनेपर, छोडी जा सकती है, और उसकी जगह दूसरी अनुकूल तथा हितरूप-प्रवृत्ति ग्रहण की जा सकती है-रिवाज कोई अटल सिद्धान्त नही होता-तो फिर 'जयजिनेन्द्र पर आपत्ति कैसी ? और यह कोरी तथा कल्पित प्राचीनताका मोह कैसा ? जैनियोके लिये 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार एक समीचीन व्यवहार है, वर्तमान देश-काल भी उसे चाहता है और इमलिये उसका विरोध करना अनुचित है। इस व्यवहारसे जैनियोके सम्यक्त्वमें कोई बाधा नही आती, उनके व्रतोमे भी कोई दूपण नही लगता। और जैनियोके लिये वे सपूर्ण लौकिक विधियाँ प्रमाण कही गई हैं जिनसे उनके सम्यकत्वको हानि न पहुँचती हो या उनके व्रतोमे कोई प्रकारका दोष न लगता हो। जैसा कि श्रीसोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे प्रकट है -
सर्व एव हि जैनाना प्रमाण लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्व-हानिर्न यत्र न व्रत-दूपणम् ।।
-यशस्तिलक । ..