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जयजिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार पद्य किसी ग्रन्थ-विशेपके अश मालूम नही होते । भट्टारकजी ने इन दोनो पद्योका कोई अर्थ भी नही दिया। नही मालूम, इसका क्या कारण है और इस तरह क्या बात सिद्ध करनेके लिये इन्हे उद्धृत किया गया है ? हाँ, ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने, अपने सम्पादकीय नोटमे, इनका अर्थ जरूर दिया है और यो भट्टारकजीके लेखकी कमीको पूरा करनेका प्रयत्न किया है। आपका वह नोट इस प्रकार है -
"जुहारुका अर्थ ऊपरकी गाथा तथा श्लोकमे यह है कि जिनवर-धर्मको ग्रहण करो, अष्ट कर्मोका नाश करो तथा आस्रवके द्वारको रोको। और 'जु' से युगकी आदि ऋषभदेव, 'हा' से जो सर्व कष्टोको हरने वाले हैं, "र' से जो सबकी रक्षा करते हैं । जुहारुका प्राचीन रिवाज मालूम होता है।" ___इस नोटमे अन्तका एक वाक्य तो ब्रह्मचारीजीकी सम्मतिका है, बाकी सब गाथा तथा श्लोकका क्रमश अर्थ है, परन्तु ब्रह्मचारीजीने गाथाका जो अर्थ किया है वह ठीक नही है। गाथामे ऐसा कोई क्रिया-पद नही, जिसका अर्थ 'ग्रहण करो', 'नाश करो' अथवा 'रोको' होवे । जान पडता है गाथामे 'धम्मो' को 'धम्म' लिख देनेसे ही आपको क्रिया-पदोका अर्थ समझनेमे गलती हुई है । और इससे आपने 'धम्मो' के अशुद्ध विशेषण पद 'गहियं' को भी क्रियापद समझ लिया है। अस्तु, इस गाथाका आशय यह होता है कि 'ग्रहण किया हुआ जिनवर-धर्म आठ दुष्ट-कर्मोंको हनता है और आस्रवके द्वारको रुद्ध ( बन्द ) करता है । ( इस तरहपर यह ) 'जुहारु' जिनवरका कहा हुआ है। गाथाके इस आशयपरसे 'जुहारु' शब्दकी कोई निष्पत्ति नही होती। यदि 'जिनवरधम्मो' का 'जि', 'हणेइ' का 'ह' और