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जयजिनेन्द्र, जुहारु ओर इच्छाकार २११ समर्थ हो सके हैं, जिससे किसी रिवाजके पहले या पीछे प्रचलित होनेकी वातकी जांच की जा सकती अथवा यही निश्चय किया जा सकता कि वे वाक्य कहाँ तक मान्य किये जानेके योग्य हैं। आपने यह भी नही बतलाया कि 'जुहारु'का रिवाज 'इच्छाकार' से पहले हुआ या पीछे। यदि पीछे हुआ तो वह पहले रिवाजके मौजूद होते हुए क्यो मान्य किया गया ? यदि पहले हुआ तो उसकी मौजूदगीमे इच्छाकारके विधानकी क्या जरूरत पैदा हुई और वह क्यो स्वीकार किया गया ? और यदि दोनोका विधान युगपत् आरम्भ हुआ और युगपत् ही चलता है तो फिर उस ग्रन्थमे जुहारुका विधान क्यो नही, जिसका 'नमोस्तु' पद्य उद्धृत किया गया है ? यदि एकके बाद दूसरा अच्छा रिवाज भी पहलेके स्थानपर प्रचलित हुआ करता है और वह आपत्तिके योग्य नही होता तो फिर 'जयजिनेन्द्र'के रिवाजपर ही आपत्ति कैसी? उसमे कौन-सी बुराई है ? साथ ही, इस वातका भी कोई अच्छा स्पष्टीकरण नही किया कि दोनोमेंसे जुहारुका किस जगह और इच्छाकारका कहाँपर व्यवहार होना चाहिये, जिससे यहाँ तो उस नासमझीको अवसर न रहता, जिसकी आप जयजिनेन्द्रके सम्बन्धमे शिकायत करते हैं। ___ जुहारुकी वावत जो तीन पद्य आपने उद्धृत किये हैं उनसे भी प्रकृत विपयका कोई स्पष्टीकरण नही होता। उनकी स्वय स्थिति बहुत कुछ सदिग्ध जान पडती है। तीसरे पद्यका जो अर्थ भट्टारकजीने किया है वह ठीक नही है। उससे यह पाया जाता है कि श्रावकजन परस्परमे तो 'इच्छाकार' करे और दूसरे ( अजैनादि ) सज्जनोंके प्रति उन्हे 'जुहारु' नामका नमस्कार करना चाहिए। परन्तु मूलमे 'सज्जना.' पद प्रथमान्त पडा है