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युगवीर-निवन्धावलो स्तुति आदिके समय ग्राह्य होता है और वह यह कि 'हे जिनेन्द्र आप जयवन्त हो'। इस अर्थमे जयजिनेन्द्रको 'जय त्व जिनेन्द्र' इन शब्दोका सक्षिप्त रूप कह सकते हैं। इस अर्थका भी वही आशय है जो ऊपरके दोनो अर्थोका है। भेद केवल इतना ही है कि इसमे जिनेन्द्रदेवको सम्बोधन करके उनका जयघोष किया गया है और पहले दोनो अर्थो-द्वारा विना सम्बोधनके ही उनकी जय मनाई गई है। वात असलमे एक ही है। इस तरह 'जयजिनेन्द्र' का उच्चारण बहुत कुछ सार्थक है। वह जिनेन्द्रकी स्मृतिको लिए हुए हैं-उनकी यादको ताजा करा देता है और जिनेन्द्रकी स्मृतिको स्वामी समन्तभद्रने क्लेशाम्बुधिसे-दुख समुद्रसे--पार करनेके लिये नौकाके समान बताया है। इससे 'जयजिनेन्द्र' का उच्चारण मगलमय होनेसे उपयोगी भी है। हम जितनी बार भी जिनेन्द्रका स्मरण करे उतना ही अच्छा है। हमे प्रत्येक सत्कार्यकी आदिमे, सुव्यवस्था लाने अथवा सफलता प्राप्त करनेके लिये, जिनेन्द्रका उस देवताका-स्मरण करना चाहिये जो सम्पूर्ण दोषोसे विमुक्त और गुणोसे परिपूर्ण है। परस्परमे 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार इसका एक बहुत बडा साधन है । एक भाई जव दूसरे भाईको 'जयजिनेन्द्र' कहता है तो वह उसके द्वारा केवल जिनेन्द्र भगवानका स्मरण ही नही करता बल्कि दूसरे भाईको अपने साथ प्रेमके एक सूत्रमे बाधता हैउसे अपना बन्धु मानता है। कितने ही अशोमे उसे अभय प्रदान करता और अपनी सहायताका आश्वासन देता है, वह अपने और उसके मध्यकी : खाईको एक प्रकारसे पाट देता है अथवा उसपर एक सुन्दर पुल खडा कर देता है। उसके जयघोषका यह अर्थ
१. ( येषा ) स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौँ'-स्तुतिविधा