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. जय जिनेन्द्र, जुहारु और इच्छाकार : ६ :
दूसरे लोगोमे जिस प्रकार परस्पर जयगोपाल, जयश्रीकृष्ण, जयसीताराम और जयरामजी, इत्यादि वचन-व्यवहार चलता है उसी तरह जैनियोमे 'जयजिनेन्द्र' का व्यवहार प्रचलित है। परन्तु कुछ लोगोको इस व्यवहारमै अर्वाचीनताकी गन्ध आती है और इसलिये वे इस सुन्दर, सारगर्भित तथा सद्भाव-द्योतक वचनव्यवहारको उठाकर उसकी जगह 'जुहारु' तथा 'इच्छाकार'का प्रचार करना चाहते हैं। पॉच' महीनेके करीब हुए, भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिजीने अपना ऐसा ही मतव्य प्रकट किया था, जो १७ दिसम्बर सन् १६२५ के जैन मित्र अक न० ८ मे, 'अवश्य वाँचने योग्य' शीर्पकके साथमे प्रकाशित हुआ है, और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने उसे पढकर 'जुहारु' पर प्राचीनताकी अपनी मुहर भी लगाई थी। मैं चाहता था कि उस समय उसपर कुछ लिखू, परन्तु अनवकाशने, वैसा नहीं करने दिया। हालके जैन मित्र अक न० २७ मे इसी विपयका प्रश्न रामपुर स्टेटके भाई लक्ष्मीप्रसादजीकी ओरसे उपस्थित किया गया है और उससे मालूम होता है कि ऐलक पन्नालालजी भी 'जयजिनेन्द्र' का निपेध करते हैं और उसकी जगह 'जुहारु' का उपदेश देते हैं। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने उक्त प्रश्नके उत्तरमे लिखा है कि "परस्पर जुहारु करनेका ही कथन ठीक है" और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि आप भी 'जयजिनेन्द्र' का निषेध और उसके स्थान पर 'जुहारु' का विधान चाहते हैं। अत आज इस विपयपर कुछ विचार करना ही उचित मालूम होता है और नीचे उसीका प्रयत्न किया जाता है।