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युगवीर-निवन्धावली
बल्कि दोषीको अनुचित और अयथादोष दड दिये जानेके विरोधकी हिमायत करता है।
अनुचित दड-विधानोके मूलमे हमेशा अज्ञान, अविवेक, व्यक्तिगत राग-द्वेष, पक्षपात और ईर्षा-घृणाका भाव भरा रहता है और जिस हृदयमे इस प्रकारका भाव भरा होता है वह उदार न रहकर अनुदार बन जाता है—क्षुद्र हो जाता है—और उसमे एकान्तताकी तूती बोलने लगती है। अनुदार हृदय मानव कभी गभीर नहीं होता, उसे जल्दी ही क्षोभ तथा कोप हो आता है, न्यायासनपर बैठे हुए उसे, यदि अपराधीने कोई अप्रिय शब्द कह दिया तो इतनेपरसे ही वह अपना सतुलन खोकर विगड बैठता है और सारे न्यायको उलट देता है, ककडीके चोरको कटार भी मार देता है और अपने थोथे खयालोके विरुद्ध कोई कृत्य करने वालो-यथा छपे ग्रन्थ पढनेवालोको जातिसे बहिष्कृत किये जानेका दड भी दे डालता है, वह बाह्य प्रभावोसे अभिभूत होता है, दुसरोकी सिफारिश सुनता है और उनका दवाव भी मानता है, उसकी दृष्टि सकुचित और तुला-निरपेक्ष होती है और इसलिये वह किसी भी विषयका ठीक तथा गहरा विचार नही कर सकता अथवा यो कहिये कि उससे सम्यक् न्याय नहीं बन सकता। सम्यक् दड-प्रणयनके लिए उदार हृदय अथवा उदार विचारोकी बड़ी जरूरत है-उनके साथमे उसका घनिष्ठ सम्बन्ध है-और इसीलिये अनुचित दण्ड-विधानोका कारण अनुदार विचारोको बतलाया गया था। बडजात्याजी इस कारणको ठीक समझ नही सके, इसका मुझे खेद है । लेखमे तो एक जगह 'उदार' का एक अर्थ कोष्ठके भीतर 'अनेकान्तात्मक' दिया गया था। उसपरसे यदि 'अनुदार' का अर्थ 'एकान्त विचार' समझ