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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
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कुल वहाँ किसीको मालूम नही था। वसुदेवजीके कुलीन या अकुलीन होनेका राजाओमे विवाद भी उपस्थित हुआ था और उसका निर्णय उस वक्तसे पहले नहीं हो सका जव तक कि युद्धमे वसुदेवने समुद्रविजयको अपना परिचय नही दिया । इससे स्पष्ट है कि वरमाला डालनेके वक्त वसुदेवसे कोई परिचित नही था, न वहाँ उनके कुल-जातिका किसीको कुछ हाल मालूम था, और वे एक बाजत्री ( पाणविक ) के वेषमे उपस्थित थे, यह बात उपर वतलाई ही जा चुकी है। उसी बाजंत्री वेपमें उनके गलेमे वरमाला डाली गई और वरमालाको डाल कर रोहिणी, सवोको आश्चर्यमे डालते हुए, उन्हीके पास बैठ गई । ऐसी हालतमे लेखकका उक्त लिखना किधरसे सर्वथा शास्त्रविरुद्ध है इसे पाठक स्वय समझ सकते हैं। हां, समालोचकजीने इतना जरूर प्रकट किया है कि वसुदेवने वीणा बजाकर रोहिणीको यह सकेत किया था कि "तेरे मनको हरण करनेवाला राजहस यहाँ बैठा हुआ है" इस सकेतमात्रका अर्थ ज्यादा-से-ज्यादा इतना ही हो सकता है कि रोहिणीके दिलमे यह खयाल पैदा हो गया हो कि वह कोई राजा अथवा राजपुत्र है। परन्तु राजा तो म्लेच्छ भी होते हैं, अकुलीन भी होते हैं, सगोत्र भी होते हैं, विजातीय भी होते हैं और असवर्ण भी होते हैं। जव इन सब बातोका कोई निर्णय नही किया गया और वरमाला एक अपरिचित तथा अज्ञात-कुल-जाति व्यक्तिके ही गलेमे-चाहे वह राजलक्षणोसे मडित' या अपने मुखमडलपरसे अनुमानित होने वाला राजा ही क्यो न हो-डाल दी गई तव तो यही कहना चाहिये कि स्वयवरमे एक अकुलीन, सगोत्र, विजातीय अथवा असवर्णको भी वरा जा सकता है। फिर