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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
१७७ अतिहिं धरि विहुय तहो अणुराइय ।
तेसि हि सक्खि करेवि विवाहिय । समालोचकजीने इस पद्यके अर्थमे लिखा है कि-"किसी समय शोलायुध राजा वहाँ वन-क्रीडाके लिये आया वह [ उसे ] ऋषिदत्ताने देखा । उन दोनोमे परस्पर अनुराग हो गया और उन्होने तेसिको साक्षीकर विवाह कर लिया ।" साथ ही, यह प्रकट किया है कि 'तेंसि' का अर्थ हमे मिला नही, यह नि सन्देह कोई अचेतन पदार्थ जान पडता है जिसको साक्षी करके विवाह किया गया है। __यहाँ, मैं अपने पाठकोको यह बतला देना चाहता हूँ कि उक्त प्रश्नोत्तरवाला पद्य इस बातको प्रकट कर रहा अथवा मॉग रहा है कि उससे पहले पद्यमे भोगका उल्लेख होना चाहिये, तब ही गर्भकी शका और तद्विषयक प्रश्न बन सकता है। परतु इस पद्यमे भोगका कोई उल्लेख न होकर केवल विवाहका उल्लेख है और विवाहमात्रसे यह लाजिमी नहीं आता कि भोग भी उसी वक्त हुआ हो। मात्र विवाहके अनन्तर ही उक्त प्रश्नोत्तरका होना बेढगा मालूम होता है। ऐसी हालतमे यहाँ 'विवाहिय' पदका जो प्रयोग पाया जाता है वह सदिग्ध जान पड़ता है। बहुत-सम्भव है कि यह पद अशुद्ध हो और भोग किया, काम-क्रोडा की अथवा रमण किया, ऐसे ही किसी अर्थके वाचक शब्दकी जगह लिखा गया हो। तेंसिहि सक्खि' पाठ भी अशुद्ध मालूम होता है-उसके अर्थका कहीसे भी कोई समर्थन नहीं होता। ऋषिदत्ताकी कथाको लिये हुए सबसे प्राचीन ग्रन्थ, जो अभी तक उपलब्ध हुआ है वह, जिनसेनाचार्यका हरिवशपुराण ही है-काष्ठासघी यश कीर्ति भट्टारकका