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________________ प्राकथन दूसरे विभागमें तीन ग्रन्योकी तथा कतिपय फुटकर लेखो, कविताओ, कथनो आदिकी समालोचनाएँ हैं। प्रो० घोषाल-कृत 'द्रव्यसग्रहके' अग्रेजी सस्करण तथा प्रवचनसारके डा० उपाध्ये द्वारा सुसम्पादित सस्करणकी समालोचनाएँ पढकर भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि एक साहित्यिक समालोचकको कितना सुविज्ञ और सक्षम होना चाहिये और एक वास्तविक समालोचनाके लिये कितना कुछ श्रम एव सावधानी अपेक्षित है। समालोचनाका उद्देश्य समालोच्य-कृतिके वाह्य एव अभ्यन्तर समस्त गुणदोपोको निष्पक्ष किन्तु सहृदय दृष्टिसे प्रकाशित करना होता है । जो ऐसा नही करता वह समालोचकके कर्तव्यका पालन नहीं करता । वर्तमान युगमे जैन समाजमे इस कोटिका समालोचक एक ही हुआ है, और वह मुख्तार सा० हैं। प्राय अन्य किसी विद्वानने इस विषयमे उनका अनुसरण नही किया, शायद साहस ही नही हुआ। प्रथम तो, जितना समय और श्रम किसी गभीर ग्रन्थके आद्योपान्त सम्यक् अध्ययनके लिये, उसमें निरूपित या विवेचित त्रुटिपूर्ण अथवा भ्रामक जंचनेवाले कयनो, तथ्यो आदिके शुद्ध रूपोको खोज निकालनेके लिये, तद्विपयक अन्य अनेक सन्द को देखनेके लिये, विवेचित विषय पर अतिरिक्त अथवा विशेष प्रकाश डालनेकी क्षमता प्राप्त करनेके लिये और अन्तमें आलोच्य कृतिका समुचित मूल्याङ्कन करनेवाली विस्तृत समालोचना लिखनेके लिये अपेक्षित है वह किसी विद्वानके पास है ही नही, विशेषकर जबकि समालोचकको उससे कोई आर्थिक लाभ भी न हो। फिर भी यदि कोई इस दिशामें कुछ प्रयत्न करता है तो वह कृतिके लेखक और प्रकाशक दोनोका ही कोपभाजन वन जाता है। समालोचनाके नामसे लेखककी और उसकी कृतिकी प्रशसाके खूब पुल' वाधिये, वह प्रसन्न है । किन्तु यदि कही आपने उसके बुरी तरहसे खटकनेवाले एकाध दोषका भी उल्लेख कर दिया-चाहे कितनी ही शिष्टसयत भाषामें क्यो न किया हो-तो गज़ब हो जाता है। सदैवके लिये लेखक समालोचकका शत्रु बन जाता है। ऐसा इस जन-समाजमें ही होता है, उसके बाहर तो समालोचना साहित्यिक प्रगतिका, चाहे वह किसी भी ज्ञान-विज्ञानसे सबधित क्यो न हो, एक अत्यन्त आवश्यक एव उपयोगी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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