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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
'म्लेच्छराज'से श्रीजिनसेनाचार्यका अभिप्राय 'म्लेच्छजाति' विशिष्ट राजा'का है, यह बात उनके इसी ग्रन्थके दूसरे उल्लेखोसे भी पाई जाती है। यथा --
म्लेच्छराजसहस्राणि वीक्ष्य पूर्ववरूथिनीम् । क्षुभितान्यभिगम्याशु योधयामासुरश्रमात् ।। ३० ।। ततः क्रुद्धो युधि म्लेच्छरयोध्यो दडनायकः । युध्या निधूय तानाशु दधे नामार्थसंगतम् ॥ ३१॥ भयान्म्लेच्छास्ततो याताः शरणं कुलदेवताः। घोरान्मेघमुखान्नागान्दर्भशय्याधिशायिनः ॥ ३२ ।। ततो मेघमुखैम्लेंच्छाः प्रोक्ताः सहृतवृष्टिभिः । चक्रिण शरणं जग्मुरादाय वरकन्यकाः ॥ ३८ ॥
-११वॉ सर्ग। यहाँ, उत्तर भारतखण्डके म्लेच्छोके साथ भरत चक्रवर्तीके सेनापति जयकुमारके युद्धका वर्णन करते हुए, पहले पद्यमें जिन सहस्रो म्लेच्छ राजाओका "म्लेच्छराजसहस्राणि" पदके द्वारा उल्लेख किया है उन्हे ही अगले पद्योमे "म्लेच्छ" और "म्लेच्छाः" पदोंके द्वारा स्पष्टरूपसे 'म्लेच्छ' सूचित किया है। और इससे साफ जाहिर है कि 'म्लेच्छराजा' का अर्थ म्लेच्छ जातिके राजासे है। और इसलिये जराका पिता म्लेच्छ था। प० दौलतरामजीने इस राजाको जो म्लेच्छखण्डका राजा वतलाया है उसका अभिप्राय 'म्लेच्छखंडोद्भव' (म्लेच्छखण्डमे उत्पन्न हुए ) राजासे है-म्लेच्छखण्डोको जीतकर उनपर अपना आधिपत्य रखनेवाले चक्रवर्ती राजासे नही जान पडता
१. “सो गगाके तीर एक म्लेच्छखडका राजा ताने देखो । सो अपनी जरा नामा पुत्री वसुदेवको परनाई।"