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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
१३३ तभी 'वसुदेवको' देवकीके दिये जानेका अर्थ बन सकता है अन्यथा, 'वासुदेवाय' पाठसे तो यह अर्थ हो जाता है कि देवकी 'वासुदेव'को-वसुदेवके पुत्र श्रीकृष्णको-व्याही गई,
और यह कितना अनर्थकारी अर्थ है, इसे पाठक स्वय समझ सकते हैं। इसी तरह "प्रतिपन्नस्वमगिनों" पाठ भी अशुद्ध है । श्लोकमे छठा अक्षर गुरु और पहले तथा तीसरे चरणका सातवाँ अक्षर भी गुरु होता है', परन्तु यहाँ उक्त पहले चरणमे छठा और सातवाँ दोनो ही अक्षर लघु पाये जाते हैं और इसलिये वे इस पदके अशुद्ध होनेका खासा सदेह उत्पन्न करते हैं। लेखकके पुस्तकालयमे इस ग्रन्थकी एक जीर्ण प्रति सं० १७६५ की लिखी हुई है, उसमे "प्रतिपन्नस्वभग्निीभ्रा" ऐसा पाठ पाया जाता है। इस पाठमे "भगिनी" की जगह "भग्नी" शब्दका जो प्रयोग है वह ठीक है और उससे उक्त दोनो अक्षर, छन्द शास्त्रकी दृष्टिमे, गुरु हो जाते हैं परन्तु अन्तका "भ्रा' अक्षर कुछ अशुद्ध जान पड़ता है और उसे अधिक अक्षर नही कहा जा सकता। क्योकि उसे पृथक् करके यदि "भग्नी" का "भग्नी" पाठ माना जावे तो उससे छद-भग हो जाता है—आठकी जगह सात ही अक्षर रह जाते हैं इसलिये "भग्नी" के बाद आठवॉ अक्षर पदकी विभक्तिको लिये हुए जरूर होना चाहिये। मालूम होता है वह अक्षर "न्द्रा" था, प्रति लेखककी कृपासे "भ्रा" बन गया है। और इसलिये उक्त पदका शुद्ध रूप "प्रतिपन्नस्वमग्नीन्द्रा" होना चाहिए, जिसका अर्थ होता है 'अपनी बहनोमे इन्द्रा पदको प्राप्त' अर्थात् इन्द्राणी जैसी। नेमिदत्तने अपने 'नेमिपुराणमे
१. श्लोके षष्ठ गुरु ज्ञेय सर्वत्र लघु पचमम् । द्विचतुष्पादयोर्हस्व सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥ १०॥ -श्रुतबोध ।