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युगवीर-निवन्धावली
मालूम होता है कि देवकी खास उग्रसेनकी पुत्री नही, किन्तु उनसेनके भाईकी पुत्री थी और वह वाक्य इस प्रकार है -
प्रवर्द्धता भ्रातृशरीरजायाः सुतोऽयमज्ञेयमरेरितीष्टाम् । तढीग्रसेनीमभिनंद्य वाचममू विनिर्जग्मतुराशु पुर्याः ॥ २६ ॥
-३५ वॉ मर्ग। यह वाक्य उस अवसरका है जब कि नवजात बालक कृष्णको लिये हुए वसुदेव और बलभद्र दोनो मथुराके मुख्य-द्वारपर पहुँच गये थे, बालककी छीकका गभीर नाद होनेपर द्वारके ऊपरसे राजा उग्रमेन उमे यह आशीर्वाद दे चुके थे कि 'तू चिरकाल तक इस समारमे निर्विघ्न रूपमे जीता रहो' और इस प्रिय आशीर्वादमे संतुष्ट होकर वसुदेवजी उनसे यह निवेदन कर चुके थे कि 'कृपया इस रहस्यको गुप्त रखना, 'देवकीके इस पुत्र-द्वारा आप बधनमे छ्टोगे (विमुक्तिरस्मात्तव देवकेयात् )।' इस कथनके अनन्तरका ही उक्त पद्य है। इसके पूर्वार्धमे राजा उग्रसेनजी वसुदेवजीकी प्रार्थनाके उत्तरमे पुन आशीर्वाद देते हुए कहते हैं-'यह मेरे भाईकी पुत्रीका पुत्र शत्रुसे अज्ञात रहकर वृद्धिको प्राप्त होओ' और उत्तरार्धमे ग्रन्थकर्ता आचार्य बतलाते हैं कि 'तव उग्रसेनकी इस इप्ट वाणीका अभिनन्दन करकेउसकी सराहना करके दोनो-वसुदेव और वलभद्र-नगरी ( मथुरा) से बाहर निकल गये।'
इस वाक्यसे जहाँ इस विषयमे कोई सदेह नही रहता कि देवकी राजा उग्रसेनके भाईकी पुत्री थी वहाँ यह वात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वह वसुदेवकी भतीजी थी, क्योकि उग्रसेन आदि वसुदेवके चचाजाद भाई थे और इसलिये उग्रसेनकी पुत्री न होकर उग्रसेनके भाईकी पुत्री होनेसे देवकीके उस सम्बन्धमे रचमात्र भी अन्तर नहीं पड़ता।