________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
११५ भतीजी तब होती जव समुद्रविजयादि वसुदेवके ६ सगे भाइयोमैसे वह किसीकी लडकी होती-परन्तु आप इससे भी- करीवीसम्बन्धको लीजिये, और वह राजा उग्रसेनके पोते-पोतियोका सम्बन्ध है। कहा जाता है कि अग्रवाल-वशकी जिन राजा अग्रसेनसे उत्पत्ति हुई है, उनके १८ पुत्र थे। इन पुत्रोका विवाह तो राजा अग्रसेनने दूसरे राजाओकी राज-कन्याओसे कर दिया था, परन्तु राजा अग्रसेनकी युद्धमे मृत्यु होनेके साथ उनका राज्य नष्ट हो जानेके कारण जब इन राज्य-भ्रष्ट १८ भाइयोको अपनी-अपनी सततिके लिये योग्य विवाह-सम्बन्धका सकट उपस्थित हुआ तो इन्होने अपने पिताके पूज्य गुरु पतजलि और मत्री-पुत्रोके परामर्शसे अपनेमे १८ (एक प्रकारसे १७॥) गोत्रोकी कल्पना करके आपसमे विवाह-सवध करना स्थिर किया-अर्थात्, यह ठहराव किया कि अपना गोत्र बचाकर दूसरेभाईकी सततिसे विवाह कर लिया जाय
और तदनुसार एक भाईके पुत्र-पुत्रियोका दूसरे भाईके पुत्र-पुत्रियोके साथ विवाह होगया, अथवा यो कहिये कि सगे चचा-ताऊज़ाद भाईवहनोका आपसमें विवाह होगया। इसके बाद भी कुटुम्ब तथा वशमे विवाहका सिलसिला जारी रहा-कितने ही भाई-बहनो तथा चचा-भतीजियोका आपसमे विवाह हुआ—और उन्ही विवाहोका परिणाम यह आजकलका विशाल अग्रवाल-वश है, जिसमे जैन और अजैन दोनो प्रकारकी जनता शामिल है। और इससे अजैनोके लिए जैनोके किसी पुराने कौटुम्बिक विवाहपर आपत्ति करने या उसके कारण जैनधर्मसे ही घृणा करनेकी कोई वजह नही हो सकती। आज भी अग्रवाल लोग, उसी गोत्रपद्धतिको टालकर, अपने उसी एक वशमे-अग्रवालोके ही साथ विवाह-सम्बन्ध करते है, यह प्राचीन रीति-रिवाज तथा