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विवाह-क्षेत्र प्रकाश
नन्दयशा' वाला वाक्य बडे दर्पके साथ प्रमाणमे पेश किया था ? क्या एक वाक्यके छलसे ही आप अपने पाठकोको ठगना चाहते थे ? भोले भाई भले ही आपके इस जालमे फंस जायँ परन्तु विशेषज्ञोके सामने आपका ऐसा कोई जाल नही चल सकता । समझदारोने जिस समय यह देखा था कि आपने और जगह तो जिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणके वाक्योको उद्धृत किया है, परन्तु इस मौकेपर, जहाँ जिनसेनके वाक्यको उद्धृत करनेकी खास जरूरत थी, वैसा न करके अनुवादके एक वाक्यसे काम लिया है, वे उसी वक्त ताड गये थे कि जरूर इसमें कोई चाल है-अवश्य यहाँ दालमे कुछ काला हे--और वस्तु-स्थिति ऐसी नही जान पडती। खेद है कि जो समालोचकजी, अपनी समालोचनामे पण्डित गजाधरलालजीके वाक्योको वडी श्रद्धा-दृष्टिसे पेश करते हुए नजर आते हैं उन्होने उक्त पण्डितजीकी एक भी बात मानकर न दी... न तो देवकोको राजा उग्रसेनकी लडकी माना और न उग्रसेनके भाई देवसेनकी पुत्री ही स्वीकार किया। प्रत्युत इसके, जिनसेनाचार्यके कथनको छिपाने और उसपर पर्दा डालनेका भरसक यत्न किया है । इस हठधर्मी और वेहयाईका भी क्या कही कुछ ठिकाना है ? जान पडता है विधर्मीजनोकी कुछ कहा-सुनीके खयालने समालोचकजीको बुरी तरहसे तग किया है और इसीसे समालोचनाके पृष्ठ चारपर वे लेखकपर यह आक्षेप करते हैं कि उसने- "यह नही विचार किया कि इस असत्य लेखके लिखनेसे विधर्मीजन पवित्र जैनधर्मको कितनी घृणापूर्ण दृष्टिसे अवलोकन करेगे।"
महाशयजी। आप अजैनोकी-अपने विधर्मीजनोकीचिन्ता न कीजिये, वे सब आप जैसे नासमझ नही है जो किसी