________________
स्वामी समंतभद्र। हो जाय, उन्होंने यथाशक्ति उग्र उग्र तपश्चरणोंके द्वारा कष्ट सहन कर अच्छा अभ्यास किया था, वे आनंदपूर्वक कष्टोंको सहन किया करते थे-उन्हें सहते हुए खेद नहीं मानते थे और इसलिये, इस संकटके अवसरपर वे जरा भी विचलित तथा धैर्यच्युत नहीं हो सके।
समन्तभद्रने जब यह देखा कि रोग शान्त नहीं होता, शरीरकी दुर्बलता बढ़ती जारही है, और उस दुर्बलताके कारण नित्यकी आवश्यक क्रियाओं में भी कुछ बाधा पड़ने लगी है। साथ ही, प्यास भाँदिकके भी कुछ उपद्रव शुरू हो गये हैं, तब आपको बड़ी ही चिन्ता पैदा हुई । आप सोचने लगे-" इस मुनिअवस्थामें, जहाँ आगमोदित विधिके अनुसार उद्गम-उत्पादनादि छयालीस दोषों, चौदह मलदोषों और बत्तीस अन्तरायोंको टालकर, प्रासुक तथा परिमित भोजन लिया जाता है वहाँ, इस भयंकर रोगकी शांतिके लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । मुनि पदको कायम रखते हुए, यह रोग प्रायः असाध्य अथवा निःप्रतीकार जान पड़ता है; इस लिये या तो मुझे अपने मुनिपदको छोड़ देना चाहिये
* भास्मदेहान्तरज्ञानजनिताहादनिर्वृतः । तपसा दुष्कृतं घोरं भुंजानोपि न विद्यते ॥
-समाधितंत्र। जो लोग आगमसे इन उदमादि दोषों तथा अन्तरायोंका स्वरूप जानते हैं और जिन्हें पिण्डशुद्धिका अच्छा ज्ञान है उन्हें यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि सच्चे जैन साधुओंको भोजनके लिये वैसे ही कितनी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है। इन कठिनाइयों का कारण दातारोंकी कोई कमी नहीं है, बल्कि भोजनविधि और निर्दोष भोजनकी जटिलता ही उसका प्रायः एक कारण हैफिर 'भस्मक' जैसे रोगकी शांति के लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी तो बात ही दूर है।