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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
-Stota स्वामी समन्तभद्रके वाधारहित और शांत मुनिजीवनमें एक बार
कठिन विपत्तिकी भी एक बड़ी भारी लहर आई है, जिसे हम आपका ' आपत्काल' कहते हैं । वह विपत्ति क्या थी और समन्तभद्रने उसे कैसे पार किया, यह सब एक बड़ा ही हृदय-द्रावक विषय है । नीचे उसीका, उनके मुनि-जीवनसहित, कुछ परिचय और विचार पाठकोंके सामने उपस्थित किया जाता है___ समन्तभद्र, अपनी मुनिचर्याके अनुसार, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामके पंचमहाव्रतोंका यथेष्ट रीतिसे पालन करते थे; ईर्या-भाषा-एषणादि पंचसमितियोंके परिपालनद्वारा उन्हें निरंतर पुष्ट बनाते थे, पाँचों इंद्रियोंके निग्रहमें सदा तत्पर, मनोगुप्ति आदि तीनों गुप्तियोंके पालनमें धीर और सामायिकादि पडावश्यक क्रियाओंके अनुष्ठानमें सदा सावधान रहते थे । वे पूर्ण अहिंसावतका पालन करते हुए, कषायभावको लेकर किसी भी जीवको अपने मन, वचन या कायसे पीड़ा पहुँचाना नहीं चाहते थे। इस बातका सदा यत्न रखते थे कि किसी प्राणीको उनके प्रमादवश बाधा न पहुँच जाय, इसी लिये वे दिनमें मार्ग शोधकर चलते थे, चलते समय दृष्टिको इधर उधर नहीं भ्रमाते थे, रात्रिको गमनागमन नहीं करते थे, और इतने साधनसंपन्न थे कि सोते समय एकासनसे रहते थे—यह नहीं होता था कि निद्रावस्थामें एक कर्बटसे दूसरी कवट बदल जाय और उसके द्वारा किसी जीव-जंतुको बाधा पहुच जाय; वे पीछी पुस्तकादिक किसी भी वस्तुको देख भाल कर उठाते धरते थे और मलमूत्रादिक भी प्रासुक भूमि तथा बाधारहित एकान्त स्थानमें