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स्वामी समन्तभद्र।
___ अर्थात्-स्तुतिके समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परंतु साधु स्तोताकी स्तुति कुशल परिणामकी-पुण्यप्रसाधक परिणामोंकी-कारण जरूर होती है; और वह कुशल परिणाम अथवा तजन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है। जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतासे श्रेयोमार्ग सुलभ है-~-अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्त है-तब, हे सर्वदा अभिपूज्य नमिजिन, ऐसा कौन परीक्षापूर्वकारी विद्वान् अथवा विवेकी होगा जो आपकी स्तुति न करेगा ? जरूर करेगा। __इससे स्पष्ट है कि समंतभद्र इन अर्हत्स्तोत्रोंके द्वारा श्रेयो मार्गको सुलभ और स्वाधीन मानते थे, उन्होंने इन्हें 'जन्मारण्यशिखी'
-जन्ममरणरूपी संसार वनको भस्म करनेवाली अग्नि-तक लिखा है और ये उनकी उस निःश्रेयस-मुक्तिप्राप्तिविषयक-भावनाके पोषक थे जिसमें वे सदा सावधान रहते थे। इसी लिये उन्होंने इन ' जिन-स्तुतियों ' को अपना व्यसन बनाया था-उनका उपयोग प्रायः ऐसे ही शुभ कामों में लगा रहता था । यही वजह थी कि संसारमें उनकी उन्नतिका ---उनकी महिमाका-कोई वाधक नहीं था; वह नाशरहित थी। ' जिनस्तुतिशतक'के निम्न वाक्यसे भी ऐसा ही ध्वनित होता है
'वन्दीभूतवतोऽपिनोन्नतिहतिर्नन्तश्च येषां मुदा * }" १'जन्मारण्यशिखी स्तवः' ऐसा ' जिनस्तुतिशतक' में लिखा है।
२ येषां नन्तुः ( स्तोतुः ) मुदा (हर्षेण ) वन्दीभूतवतोऽपि ( मंगलपा. उकी भूनवतोऽपि ननाचार्यरूपेण भवतोपि मम) नोन्नतिहतिः (न उन्नतेः माहात्म्यस्य हतिः हननं )।-इति तट्टीकायां नरसिंहः।
* यह पूरा पद्य इस प्रकार है