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स्वामी समन्तभद्र।
अधिक प्रीति होनेसे ही वे अर्हन्त होनेके योग्य और अर्हन्तोंमें भी तीर्थकर होनेके योग्य पुण्य संचय कर सके हैं, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। अर्हद्गुणोंकी प्रतिपादक सुन्दर सुन्दर स्तुतियाँ रचनेकी ओर उनकी बड़ी रुचि थी, उन्होंने इसीको अपना व्यसन लिखा है और यह बिलकुल ठीक है । समंतभद्रके जितने भी ग्रंथ पाये जाते हैं उनमेंसे कुछको छोड़कर शेष सब ग्रंथ स्तोत्रोंके ही रूपको लिये हुए हैं और उनसे समंतभद्रकी अद्वितीय अर्हद्भक्ति प्रकट होती है । 'जिनस्तुतिशतक' के सिवाय, देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयंभू स्तोत्र, ये आपके खास स्तुतिग्रन्थ हैं (इन ग्रंथोंमें जिस स्तोत्रप्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिनसे कठिन तात्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है वह समंतभद्रसे पहलेके ग्रंथोंमें प्रायः नहीं पाई जाती अथवा बहुत ही कम उपलब्ध होती है । समंतभद्रने, अपने स्तुतिग्रंथोंके द्वारा, स्तुतिविद्याका खास तौरसे उद्धार तथा संस्कार किया है और इसी लिये वे 'स्तुतिकार' कहलाते थे। उन्हें 'आद्य स्तुतिकार' होनेका भी गौरव प्राप्त था । श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रधान आचार्य श्रीहेमचंद्रने भी अपने ‘सिद्धहैमशब्दानुशासन' व्याकरणके द्वितीय सूत्रकी व्याख्याने “स्तुतिकारोऽप्याह" इस वाक्यके द्वारा आपको 'स्तुतिकार ' लिखा है और साथ ही आपके ' स्वयंभूस्तोत्र' का निम्न पद्य उद्धृत किया हैनयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्या प्रणता हितैषिणः॥
१-२ सनातनजैनग्रंथमालामें प्रकाशित 'स्वयंभूस्तोत्र' में और स्वयंभूस्तोत्रकी प्रभाचंद्राचार्यविरचित संस्कृतटीकामें ' लांछना इमे ' की जगह 'सायलाञ्छिताः' और 'फल:' की जगह ' गुणा: पाठ पाया जाता है।