________________
गुणादिपरिचय।
५९
यह 'युक्त्यनुशासन' नामक स्तोत्रका, अन्तिम पद्यसे पहला, पर ह । इसमें आचार्य महोदयने बड़े ही महत्त्वका भाव प्रदर्शित किया है । आप श्रीवर्द्धमान ( महावीर ) भगवान्को सम्बोधन करके उनके प्रति अपनी इस स्तोत्र रचनाका जो भाव प्रकट करते हैं उसका स्पष्टाशय इस प्रकार है___ 'हे भगवन् , हमारा यह स्तोत्र आपके प्रति रागभावसे नहीं है; न हो सकता है, क्योंकि इधर तो हम परीक्षाप्रधानी हैं और उधर आपने भवपाशको छेद दिया है--संसारसे अपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है-ऐसी हालतमें आपके व्यक्तित्वके प्रति हमारा रागभाव इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं हो सकता। दूसरोंके प्रति द्वेषभावसे भी इस स्तोत्रका कोई सम्बंध नहीं है; क्योंकि एकान्तवादियोंके साथ उनके व्यक्तित्त्वके प्रति--हमारा कोई द्वेष नहीं है। हम तो दुर्गुणोंकी कथाके अभ्यासको भी खलता समझते हैं और उस प्रकारका अभ्यास न होनेसे वह 'खलता' हममें नहीं है, और इस लिये दूसरोंके प्रति कोई द्वेषभाव भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं हो सकता । तब फिर इसका हेतु अथवा उद्देश ? उद्देश यही है कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और प्रकृत पदार्थके गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र ‘हितान्वेषणके उपायस्वरूप' आपकी गुणकथाके साथ, कहा गया है । इसके सिवाय, जिस भवपाशको आपने छेद दिया है उसे छेदना-अपने और दूसरोंके संसारबन्धनोंको तोड़ना-हमें भी
१ इस स्पष्टाशयके लिखनेमें श्रीविद्यानंदाचार्यकी टीकासे कितनी ही सहायता ली गई है।