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स्वामी समन्तभद्र।
साथ व्यवहार) ही स्वीकार किया है, फिर भी यह स्पष्ट है कि कलिकालमें उस शासनप्रचारके कार्यमें कुछ बाधा डालनेवाला-उसकी सिद्धिको कठिन और जटिल बना देनेवाला-जरूर है । यथाकालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनानयो वा ! त्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ॥५॥
-युक्त्यनुशासन । स्वामी समंतभद्र एक महान् वक्ता थे, वे वचनानयके दोषसे बिलकुल रहित थे, उनके वचन--जैसा कि पहले जाहिर किया गया हैस्याद्वादन्यायकी तुलामें तुले हुए होते थे; विकार हेतुओंके समुपस्थित होने पर भी उनका चित्त कभी विकृत नहीं होता था- उन्हें क्षोभ या क्रोध नहीं आता था और इस लिये उनके वचन कभी मार्गका उल्लंघन नहीं करते थे। उन्होंने अपनी आत्मिक शुद्धि, अपने चारित्रबल और अपने स्तुत्य वचनोंके प्रभावसे श्रोताओंके कलुषित आशय पर भी बहुत कुछ विजय प्राप्त कर लिया था उसे कितने ही अंशोंमें बदल दिया था। यही वजह है कि आप स्याद्वादशासनको प्रतिष्ठित करनेमें बहुत कुछ सफल हो सके और कालकाल उसमें कोई विशेष बाधा नहीं डाल सका । वसुनन्दि सैद्धान्तिकने तो, आपके मतकी-~ शासनको-~-वंदना और स्तुति करते हुए, यहाँ तक लिखा है कि उस शासनने कालदोषको ही नष्ट कर दिया था-अर्थात् समंतभद्र मुनिके शासनकालमें यह मालूम नहीं होता था कि आज कल कलिकाल बीत रहा है । यथा
लक्ष्मीभृत्परमं निरुक्तिनिरतं निर्वाणसौख्यप्रदं कुज्ञानातपवारणाय विधृतं छत्रं यथा मासुरं ।