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स्वामी समन्तभद्र।
आपको 'स्यांद्वादविद्यामगुरु,' 'स्याद्वादविद्याधिपति' 'स्याद्वादशरीर' और 'स्याद्वादमार्गाप्रणी' जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण करते आए हैं । परन्तु इसे भी रहने दीजिये, आठवीं शताब्दीके तार्किक विद्वान् , भट्टाकलंकदेव जैसे मॉन् आचार्य लिखते हैं कि ' आचार्य समन्तभद्रने संपूर्णपदार्थतत्त्वोंको अपना विषय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि-तीर्थको, इस कलिकालमें, भव्य जीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्राभावित किया है- अर्थात, उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है। यथा
तीर्थ सर्वपदार्थतत्त्वविषयस्याद्वादपुण्योदधेभव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्यसमन्तभद्रयतिना तस्मै नमः संततं
कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तस्कृतिः ।। __ यह पद्य भट्टाकलंककी ' अष्टशती' नामक वृत्तिके मंगलाचरणका द्वितीय पद्य है, जिसे भट्टाकलंकने, समन्तभद्राचार्य के ' देवागम' नामक भगवत्स्तोत्रकी वृत्ति ( भाष्य ) लिखनेका प्रारंभ करते हुए, उनकी स्तुति और वृत्ति लिखनेकी प्रतिज्ञा रूपसे दिया है । इसमें समतभद्र और उनके वाड्मयका जो संक्षिप्त परिचय दिया गया है वह बड़े ही महत्त्वका है । समंतभद्रने स्याद्वादतीर्थको कलिकालमें प्रभावित
१ लघुसमंतभद्रकृत ' अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' । २ वसुनंशाचार्यकृत देवागमवृत्ति । ३ श्रीविद्यानंदाचार्यकृत अष्टसहस्री ।
४ नगर ताल्लुका (जि. शिमोगा) के ४६ वें शिलालेखमें, समन्तभद्रके 'देवागम ' स्तोत्रका भाष्य लिखनेवाले अकलंक-देवको महर्द्धिक' लिखा है।
यथा
जीयासमन्तभद्रस्य देवागमनसंझिनः । स्तोत्रस्य भाज्यं कृतवानकलंको महर्दिकः ॥