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प्रन्थ-परिचय।
२३३ नाम नहीं दिया। हो सकता है कि आपका अभिप्राय 'सूत्रकार से * उमास्वाति ' महाराजका ही हो; क्योंकि कई स्थानोंपर आपने उमास्वातिके वचनोंको सूत्रकारके नामसे उद्धृत किया हैं परंतु केवल सूत्रकार या शास्त्रकार शब्दोंपरसे ही-जो दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं-उमास्वातिका नाम नहीं निकलता; क्योंकि दूसरे भी कितने ही आचार्य सूत्रकार अथवा शास्त्रकार हो गए हैं; समन्तभद्र भी शास्त्रकार थे, और उनके देवांगमादि ग्रंथ सूत्रग्रंथ कहलाते हैं । इसके सिवाय, यह बात अभी विवादप्रस्त चल रही है कि उक्त 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' नामका स्तुतिपद्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है । कितने ही विद्वान् इसे उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण मानते हैं; और बालचंद्र, योगदेव तथा श्रुतसागर नामके पिछले दीकाकारोंने भी अपनी अपनी टीकामें ऐसा ही प्रतिपादन किया है । परन्तु दूसरे कितने ही विद्वान् ऐसा नहीं मानते, वे इसे तत्त्वार्थसूत्रकी प्राचीन टीका ' सर्वार्थसिद्धि' का मंगलाचरण स्वीकार करते हैं और यह प्रति. पादन करते हैं कि यदि यह पद्य तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण होता तो सर्वार्थसिद्धि टीकाके कर्ता श्रीपूज्यपादाचार्य इसकी जरूर व्याख्या करते, लेकिन उन्होंने इसकी कोई व्याख्या न करके इसे अपनी टीकाके मंगलाचरणके तौर पर दिया है और इस लिये यह पूज्यपादकृत ही मालूम होता है । सर्वार्थसिद्धिकी भूमिकामें, पं० कलाप्पा भरमाप्पा निटवे भी, श्रुतसागरके कथनका विरोध करते हुए अपना ऐसा ही मत प्रकट करते हैं, और साथ ही, एक हेतु यह भी देते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचना द्वैपायकके १ "देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सदर्शनान्वितः "-विक्रान्तकौरव ।
१ श्रुतसागरी टीकाकी एक प्रतिमें 'द्वैयाक' नाम दिया है, और बालचंद्र मुनिकी टीकामें 'सिद्धप्प' ऐसा नाम पाया जाता है। देखो, जनवरी सन् १९२१ का जैनहितैषी, पृ० ८०,८१।