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प्रन्य-परिचय।
भाधारपर अवलम्बित है ऐसा कुछ मालूम नहीं होता । विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीसे पहलेके जैनसाहित्यमें तो गंधहस्तिमहाभाष्यका कोई नाम भी अभीतक हमारे देखनेमें नहीं आया और न जिस 'अष्टसहस्री' टीका पर यह टिप्पणी लिखी गई है उसमें ही इस विषयका कोई स्पष्ट विधान पाया जाता है । अष्टसहस्रीकी प्रस्तावनासे सिर्फ इतना मालूम होता है कि किसी निःश्रेयस शास्त्रके आदिमें किये हुए आप्तके स्तवनको लेकर उसके आशयका समर्थन या स्पष्टीकरण करनेके लियेयह आप्तमीमांसा लिखी गई है * ! वह निःश्रेयसशास्त्र कौनसा और उसका वह स्तवन क्या है, इस बातकी पर्यालोचना करने पर अष्टसहसीके अन्तिम भागसे इतना पता चलता है कि जिस शास्त्रके आरंभमें आप्तका स्तवन 'मोक्षमागेप्रणेता, कर्मभूभृद्भत्ता और विश्वतत्त्वानां ज्ञाता' रूपसे किया गया है उसी शास्त्रसे 'निःश्रेयस शास्त्र' का अभिप्राय है । इन विशेषणोंको लिये हुए आप्तके स्तवनका प्रसिद्ध श्लोक निम्न प्रकार है
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ आप्तके इस स्तोत्रको लेकर, अष्टसहस्त्रीके कर्ता श्रीविद्यानंदाचार्यने इसपर 'आप्तपरीक्षा' नामका एक ग्रंथ लिखा है और स्वयं उसकी
* " तदेवेदं निःश्रेयसशासस्यादौ तविबन्धनतया मंगलार्थतया च मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुणेन भगवताप्टेन श्रेयोमार्गमात्महितमिच्छता सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपस्यर्थमाप्तमीमांसां विदधानाः श्रद्धागुणज्ञताभ्यां प्रयुकमनसः कस्माद् देवागमादिविभूतितोऽहं महाबाभिष्टुत इति स्फुटं पृष्ठा इव स्वामिसमन्तभद्राचार्याः प्राहुः-"
“शास्त्रारंभेभिष्टुतस्यासस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूमृनेतृतथा विश्वतत्त्वांनां ज्ञातृतया च भगवदहस्सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनपरपरीक्षेयं विहिता।"