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प्रन्य-परिचय।
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यहाँ तृतीयान्तसे उपज्ञात अर्थमें अणादि प्रत्ययोंके होनेसे जो रूप होते हैं उनके दो उदाहरण दिये गये हैं-एक 'आहत-प्रवचन' और दूसरा 'सामन्तभद्र-महाभाष्य' । साथ ही, 'उपज्ञात'का अर्थ 'प्रथमतो ज्ञात '-विना उपदेशके प्रथम जाना हुआ-किया है। अमरकोशमें भी 'आद्य ज्ञान' को ' उपज्ञा' लिखा है। इस अर्थकी दृष्टिसे अर्हन्तके द्वारा प्रथम जाने हुए प्रवचनको जिस प्रकार आहेत प्रवचन' कहते हैं उसी प्रकार ( समन्तभद्रेण प्रथमतो विनोपदेशेन-ज्ञातं सामन्तभद्र) समन्तभद्रके द्वारा विना उपदेशके प्रथम जाने हुए महाभाष्यको 'सामन्तभद्र महाभाष्य' कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये और इससे यह ध्वनि निकलती है कि समन्तभद्रका महाभाष्य उनका स्वोपज्ञ भाष्य है-उन्हींके किसी ग्रंथ पर रचा हुआ भाष्य है । अन्यथा, इसका उल्लेख 'टेः प्रोक्ते' सूत्रकी टीकामें किया जाता, जहाँ 'प्रोक्त' तथा 'व्याख्यात' अर्थमें इन्हीं प्रत्ययोंसे बनेहुए रूपोंके उदाहरण दिये हैं और उनमें 'सामन्तभद्र' भी एक उदाहरण है परन्तु उसक साथमें 'महाभाष्यं' पद और जिन्हें श्रुतमुनिके 'भावसंग्रह'की प्रशस्तिमें शब्दागम, परमागम और तांगमके पूर्ण जानकार (विद्वान् ) लिखा है । उनका समय भी यही पाया जाता है; क्योंकि श्रुतमुनिके अणुव्रतगुरु और गुरुभाई बालचंद्र मुनिने शक सं० ११९५ (वि० सं० १३३०) में 'द्रव्यसंग्रह'सूत्र पर एक टीका लिखी है (देखो ‘कर्णाटककविचरिते')। परन्तु श्रुतमुनिके दीक्षागुरु अभयचंद्र सैद्धान्तिक इन अभयचंद्रसूरिसे भिन्न जान पड़ते हैं; क्योंकि श्रवणबेलगोलके शि. लेख नं. ४१ और १०५ में उन्हें माघनंदीका शिष्य लिखा है । लेकिन समय उनका भी विक्रमकी १३ वी १४ वीं शताब्दी है । अभयचंद्र नामके दूसरे कुछ विद्वानोंका अस्तित्व विक्रमकी १६ वीं और १७ वीं शताब्दियोंमें पाया जाता है। परंतु वे इस प्रक्रियासंग्रह के कर्ता मालम नहीं होते।
१ यह उसी तीसरे अध्यायके प्रथम पादका १६९ वाँ सूत्र है; और प्रक्रियासंग्रहमें इसका क्रमिक नं. ७४३ दिया है।
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