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प्रन्थ-परिचय।
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यह ग्रंथ, वास्तवमें, इन्हीं समंतभद्राचार्यका बनाया हुआ है तो इसका बहुत शीघ्र उद्धार करने और उसे प्रकाशमें लानेकी बड़ी ही आवश्यकता है।
१० कर्मप्राभृत-टीका। प्राकृत भाषामें, श्रीपुष्पदन्त-भूतबल्याचार्यविरचित 'कर्मप्राभृत' अथवा 'कर्मप्रकृतिप्राभृत' नामका एक सिद्धान्त ग्रंथ है । यह ग्रंथ १ जीवस्थान, २ क्षुल्लकबन्ध, ३ बन्धस्वामित्व, ४ भाववेदना, ५ वर्गणा और ६ महाबन्ध नामके छह खंडोंमें विभक्त है, और इस लिये इसे 'षट्रखण्डागम' भी कहते हैं। समन्तभद्रने इस ग्रंथके प्रथम पांच खंडोंकी यह टीका बड़ी ही सुन्दर तथा मृदु संस्कृत भाषामें लिखी है और इसकी संख्या अड़तालीस हजार श्लोकपरिमाण है। ऐसा श्रीइन्द्रनंद्याचार्यकृत 'श्रतावतार' ग्रंथके निम्नवाक्योंसे पाया जाता है । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि समन्तभद्र 'कषायप्राभत' नामके द्वितीय सिद्धान्त ग्रंथकी भी व्याख्या लिखना चाहते थे; परंतु द्रव्यादि-शुद्धिकरण-प्रयत्नोंके अभावसे, उनके एक सधर्मी साधुने ( गुरुभाईने ) उन्हें वैसा करनेसे रोक दिया थाकालान्तरे ततः पुनरासन्ध्यां पलरि ( ? ) तार्किकार्कोभूत् १६७ श्रीमान्समंतभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधं । सिद्धान्तमतः पखंडागमगतखंडपंचकस्य पुनः ॥ १६८ ॥ अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसद्रंथरचनया युक्तां । विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ॥ १६९ ॥ विलिखन् द्वितीयसिद्धान्तस्य व्याख्या सधर्मगा स्वेन । द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धः ।। १७० ।।