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प्रन्थ-परिचय ।
२०९ और 'समयसार' की जयसेनाचार्यकृत ' तात्पर्यवृत्ति' में भी, समन्तभद्रके नामसे कुछ श्लोकोंको उद्धृत करते हुए एक श्लोक निन्न प्रकारसे दिया है
धर्मिणोऽनन्तरूपत्वं धर्माणां न कथंचन ।
अनेकान्तोप्यनेकान्त इति जैनमतं ततः ॥ ये तीनों श्लोक समंतभद्रके उपलब्ध ग्रंथों ( नं० १ से ५ तक) में नहीं पाये जाते और इस लिये यह स्पष्ट है कि ये समन्तभद्रके किसी दूसरे ही ग्रंथ अथवा ग्रंथोंके पद्य हैं जो अभी तक अज्ञात अथवा अप्राप्त हैं । आश्चर्य नहीं जो ये भी इस ' तत्त्वानुशासन' ग्रंथके ही पद्य हो । यदि ऐसा हो और यह ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो उसे जैनियोंका महाभाग्य समझना चाहिये । ऐसी हालतमें इस ग्रंथकी भी शीघ्र तलाश होनेकी बड़ी जरूरत है।
८प्राकृत व्याकरण । 'जैनग्रंथावली' से मालूम होता है कि समन्तभद्रका बनाया हुआ एक 'प्राकृतव्याकरण' भी है जिसकी श्लोकसंख्या १२०० है । उक्त ग्रंथावलीमें इस ग्रंथका उल्लेख ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी' की रिपोर्ट के आधार पर किया गया है और उक्त सोसाइटीमें ही उसका अस्तित्व बतलाया गया है। परंतु हमारे देखनेमें अभीतक यह ग्रंथ नहीं आया और न उक्त सोसाइटीकी वह रिपोर्ट ही देखनेको मिल सकी है; * इस लिये इस विषयमें हम अधिक
* रिपोर्ट आदिको देखकर आवश्यक सूचनाएँ देनेके लिये कई बार बाबू छोटेबालजी जैन, मेम्बर रायल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, को लिखा गया और प्रार्थनाएँ की गई परन्तु उन्होंने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया, अथवा ऐसे कामोंके लिए परिश्रम करना उचित नहीं समझा।
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