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प्रन्थ-परिचय ।
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व्याख्या ही की गई है । 'अष्टशती में तो यह पद्य दिया भी नहीं। हाँ, ' अष्टसहस्री में टीकाकी समाप्तिके बाद, इसे निम्न वाक्यके साथ दिया है
'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मंगलवचनमनुमन्यते।'
उक्त पद्यको देनेके बाद 'श्रीमदकलंकदेवाः पुनरिदं वदन्ति' इस वाक्यके साथ ' अष्टशती'का अन्तिम मंगलपद्य उद्धृत किया है। और फिर निम्न वाक्यके साथ, श्रीविद्यानंदाचार्यने अपना अन्तिम मंगलपद्य दिया है___" इति परापरगुरुप्रवाहगुणगणसंस्तवस्य मंगलस्य प्रसिद्धेवयं तु स्वभक्तिवशादेवं निवेदयामः।" __ अष्टसहस्रीके इन वाक्योंसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि 'अष्टशती' और ' अष्टसहस्री' के अन्तिम मंगल वचनोंकी तरह यह पद्य भी किसी दूसरी पुरानी टीकाका मंगल वचन है, जिससे शायद विद्यानंदाचार्य परिचित नहीं थे अथवा परिचित भी होंगे तो उन्हें उसके रचयिताका नाम ठीक मालूम नहीं होगा। इसीलिये उन्होंने, अकलंकदेवके सदृश उनका नाम न देकर, 'केचित् ' शब्दके द्वारा ही उनका उल्लेख किया है। हमारी रायमें भी यही बात ठीक ऊंचती है। ग्रंथकी पद्धति भी उक्त पद्यको नहीं चाहती। मालूम होता है वसुनन्दि आचार्यको 'देवागम' की कोई ऐसी ही मूल प्रति उपलब्ध हुई है जो साक्षात् अथवा परम्परया उक्त टीका परसे उतारी गई होगी और जिसमें टीकाका उक्त मंगल पद्य भी गलतीसे उतार लिया गया होगा। लेखकोंकी नासमझीसे ऐसा बहुधा ग्रंथप्रतियोंमें देखा जाता है । 'सनातनग्रंथमाला' में प्रकाशित 'बृहत्स्वयंभूस्तोत्र के अन्तमें भी टीकाका 'यो निःशेषजिनोक्त'