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स्वामी समन्तभद्र।
रेसे बादका विद्वान् सूचित किया है उसका अभिप्राय एकक मरण और दूसरेके जन्मसे नहीं बल्कि इनकी आचार्यपदप्राप्ति, ज्ञानप्राप्ति आदिके समयसे या बड़ाई छोटाईके खयालसे समझना चाहिये अथवा उसे ग्रंथकर्ताओंकी क्रमशः कथन करनेकी एक शैली भी कह सकते हैं। अस्तु, कुन्दकुन्दके इस समयके प्रतिष्ठित होनेपर उनके द्वारा 'षट्खण्डागम' सिद्धान्तकी टीकाका लिखा जाना बन सकता है * और पट्टावलीकी उक्त बातको छोड़कर, और भी कितनी ही बातोंपर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है।
वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका जन्म मानने और विक्रम संवत्को राज्यसंवत्-जन्मसे १८ वर्ष बाद प्रचलित हुआ---स्वीकार करनेपर कुन्दकुन्दका संपूर्ण मुनिजीवनकाल वि० सं० १२० से २०४ तक आ जाता है। और यदि प्रचलित विक्रम संवत् मृत्युसंवत् हो या जन्मसंवत् तो इस कालमें ६० वर्षकी कमी या १८ वर्षकी वृद्धि करके उसे क्रमशः ६० से १४४ अथवा १३८ से २२२ तक भी कहा जा सकता है। कुन्दकुन्दके इस लम्बे मुनिजीवनमें, जिसमें करीब ५२ वर्षका उनका आचार्य-काल शामिल है, कुन्दकुन्दकी दो तीन पीढ़ियोंका बीत जाना-उनके समयमें मौजूद होना--कोई अस्वाभाविक नहीं है। आश्चर्य नहीं जो समन्तभद्रका मुनिजीवन उनकी वृद्धावस्थामें ही प्रारंभ हुआ हो और इस तरह पर दोनोंके समयमें प्रायः ६० वर्षका अन्तर हो। ऐसी हालतमें समन्तभद्र क्रमशः विक्रमकी दूसरी तीसरी, दूसरी, या ___ * यदि कुन्दकुन्दने वास्तवमें 'षट्खण्डागम' की कोई टीका न लिखी हो तो उनका दीक्षाकाल १०-१५ वर्ष और भी पहले माना जासकता है; और तब उनके पिछले समयको १०-१५ वर्ष कम करना होगा।