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स्वामी समंतभद्र। सद्दवियारो हुओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ ६१ इस गाथामें यह बतलाया गया है कि जिनेंद्रने भगवान महावीरनेअर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषासूत्रोंमें शब्दविकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दोंमें गूंथा गया है-भद्रबाहुके मुझ शिष्यने उन भाषासूत्रों परसे उसको उसी रूपमें जाना है और ( जानकर इस ग्रंथमें ) कथन किया है।
इस उल्लेखपरसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि 'भद्रबाहुशिष्य' का अभिप्राय यहाँ ग्रंथकर्तासे भिन्न किसी दूसरे व्यक्तिका नहीं है, और इसलिये कुन्दकुन्द भद्रबाहुके शिष्य जान पड़ते हैं। उन्होंने इस पद्यके द्वारा-यदि सचमुच ही यह इस ग्रंथका पद्य है तो--अपने कथनके
आधारको स्पष्ट करते हुए उसकी विशेष प्रामाणिकताको उद्घोषित किया है। अन्यथा, कुन्दकुन्दसे भिन्न भद्रबाहुके शिष्यद्वारा जाने जाने और कथन किये जानेकी बातका यहाँ कुछ भी सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता । टीकाकार श्रुतसागर भी उस सम्बंधको स्पष्ट नहीं कर सके; उन्होंने 'भद्रबाहु-शिष्य के लिये जो 'विशाखाचार्य' की कल्पना की है वह भी कुछ युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। जान पड़ता है टीकाकारने भद्रबाहुको श्रुतकेवली समझकर वैसे ही उनके एक प्रधान शिष्यका उल्लेख कर दिया है और प्रकरणके साथ कथनके सम्बन्धादिककी ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया. इसीसे उसे पढ़ते हुए गाथाका कोई सम्बन्ध स्पष्ट नहीं होता । अब देखना चाहिये कि ये भद्रबाहु कौन हो सकते हैं जिनका कुन्दकुन्दने अपनेको शिष्य सूचित किया है । श्रुतकेवली तो ये प्रतीत नहीं होते; क्योंकि भद्रबाहुश्रुतकेवलीके शिष्य माने जानेसे कुन्दकुन्द विक्रमसे प्राय: ३०० वर्ष पह