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स्वामी समन्तभद्र।
१३ दिन+४५ वर्ष ८ महीने ९ दिन) बाद, पौषवदी ८ के दिन, आचार्य पद पर कुन्दकुन्दके प्रतिष्ठित होनेका विधान किया गया है; अथवा दूसरे शब्दोंमे यो कहना चाहिये कि प्राकृत पट्टावलीके अनुसार जब ७-८ अंगोंके पाठी लोहाचार्यका समय चल रहा था, या श्रुतावतार और त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिके अनुसार एकादशांगधारियोंका हीसंभवतः कंसाचार्यका-समय बीत रहा था उस समय कुन्दकुन्दाचार्यके अस्तित्वका प्रतिपादन किया गया है। __ यद्यपि, अंगज्ञानी न होने पर भी कुन्दकुन्दका अंगज्ञानियोंके समयमें होना कोई असंभव या अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता;-उस समय भी दूसरे ऐसे विद्वान् जरूर होते रहे हैं जो एक भी अंगके पाठी नहीं थे--परन्तु ऐसा मान लेनेपर नीचे लिखी आपत्तियाँ खड़ी होती हैं जिनका अच्छी तरहसे निरसन अथवा समाधान हुए विना कुन्दकुन्दका यह समय नहीं माना जा सकता, जो कि एक बहुत ही सशंकित और आपत्तियोग्य पट्टावलीपर अवलम्बित है
(१) दोनों पट्टावलियोंके आधारपर अर्हद्वलि कुन्दकुन्दके प्रायः समकालीन और शेष माघनन्दि (द्वितीय), धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि नामके चारों आचार्य कुन्दकुन्दसे एकदम पीछेके विद्वान् पाये जाते हैं, और यह बात इन्द्रनन्दिश्रुतावतारके विरुद्ध पड़ती है ।
(२) गुणधर, नागहस्ति, आर्यमंक्षु, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्य भी कुन्दकुन्दसे कितने ही वर्ष बादके विद्वान् ठहरते हैं, और यह बात भी 'श्रुताक्तार' के विरुद्ध पड़ती है।
१ लोहाचार्यका समय वीरनिर्वाणसे ५१५ वर्षके बाद प्रारंभ होता है और वह ५० वर्षका बतलाया गया है । इसलिये कुन्दकुन्दके आचार्य होनेके बाद २७ वर्ष तक और भी लोहाचार्यका समय रहा है।