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समय-निर्णय।
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आचार्य गुरुपरिपाटीसे दोनों सिद्धान्तोंके ज्ञाता हुए और उन्होंने 'षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डोंपर बारह हजार श्लोकपरिमाण एक टीका लिखी।
इस कथनसे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दाचार्य वीरनिर्वाण सं० ६८३ से पहले नहीं हुए, किन्तु पीछे हुए हैं । परन्तु कितने पीछे, यह अस्पष्ट है। यदि अन्तिम आचारांगधारी 'लोहाचार्य' के बाद होनेवाले विनयधर आदि चार आरातीय मुनियोंका एकत्र समय २० वर्षका और अर्हद्वलि, माघनंदि, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि तथा कुन्दकुन्दकै गुरुका स्थूल समय १०-१० वर्षका ही मान लिया जाय, जिसका मान लेना कुछ अधिक नहीं है, तो यह सहजहीमें कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द उक्त समयसे ८० वर्ष अथवा वीरनिर्वाणसे ७६३ (६८३+२०+६०) वर्ष बाद हुए हैं और यह समय उस समय (७७०) के करीब ही पहुँच जाता है जो विद्वज्जनबोधकसे उद्धृत किये हुए उक्त पद्यमें दिया है, और इस लिये इसके द्वारा उसका बहुत कुछ समर्थन होता है। श्रुतावतारमें, वीरनिर्वाणसे अन्तिम आचारांगधारी लोहाचार्यपर्यंत, ६८३ वर्षके भीतर केवलि-श्रुतकेवलियों आदिके होनेका जो कथन जिम क्रम और जिस समयनिर्देशके साथ किया है वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जिनसेनकृत हरिवंशपुराण और भगवजिनसेनप्रणीत आदिपुराण जैसे प्राचीन ग्रंथोंमें भी पाया जाता है। हाँ, त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इतना विशेष जरूर है कि आचारांगधारियोंकी ११८ वर्षकी संख्यामें अंग और पूर्वोक एकदेशधारियोंका भी समय शामिल किया है * ; इससे विनयधर आदि चार आरातीय मुनियोंका जो
* पढमो सुभद्दणामो जसभहो तह य होदि जसबाह । तुरियो य लोहणामो एदे आयार अंगधरा ॥८॥