________________
स्वामी समन्तभद्र।
M
कोई दूसरा प्रसिद्ध विद्वान् हुमा भी नहीं। इस लिये उक्त शंका निर्मूल जान पड़ती है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि समंतभद्रने अपने मुनिजीवनसे पहले इस ग्रंथकी रचना की होगी । परंतु ग्रंथके साहित्य परसे इसका कुछ भी समर्थन नहीं होता। आचार्य महोदयने, इस ग्रन्थमें, अपनी जिस परिणति और जिस भावमयी मूर्तिको प्रदर्शित किया है उससे आपकी यह कृति मुनिअवस्थाकी ही मालूम होती है । गृहस्थाश्रममें रहते हुए और राज-काज करते हुए इस प्रकारकी महापांडित्यपूर्ण और महदुच्चभावसपन्न मौलिक रचनाएँ नहीं बन सकतीं । इस विषयका निर्णय करनेके लिये, संपूर्ण ग्रंथको गौरके साथ पढ़ते हुए, पद्य नं० १९,७९ और ११४ * को खास तौरसे ध्यानमें लाना चाहिये । १९ वें पद्यसे ही यह मालूम हो जाता है कि स्वामी संसारसे भय-भीत होने पर शरीरको लेकर ( अन्य समस्त परिग्रह छोड़कर ) वीतराग भगवान्की शरणमें प्राप्त हो चुके थे, और आपका आचार उस समय -( ग्रंथरचनाके समय ) पवित्र, श्रेष्ठ, तथा गणधरादि अनुष्ठित आचार जैसा उत्कृष्ट अथवा निर्दोष था । वह पद्य इस प्रकार है
पूतस्वनवमाचारं तन्वायातं भयानुचा ।
स्वया वामेश पाया मा नतमेकाय॑शंभव ।। इस पद्यमें समन्तभद्रने जिस प्रकार 'पूतस्वनवमाचारं' + और 'भयात् x तन्वायातं' ये अपने ( मा='मां' पदके ) दो खास विशेषण पद दिये * यह पद्य आगे 'भावी तीर्थकरत्व ' शीर्षकके नीचे उद्धृत किया गया है।
+ 'पूतः पवित्रः सु सुष्टु अनवमः गणरायनुष्ठितः आचारः पापक्रिया. निवृत्तिर्यस्यासौ पूतस्वनवमाचारः अतस्तं पूतस्वनवमाचारम् ' इति टीका ।
x भवात् संसारभीतः । तन्या शरीरेण (सह) भायातं मागतं ।