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स्वामी समन्तभद्र । साथ प्रचुर अथवा यथेष्ट साधनसामग्रीके सामने मौजूद होनेकी खास अपेक्षा रखता है, जिसका इस समय अभाव है, और इसी लिये इस प्रबंधमें हम उसका कोई ठीक निर्णय नहीं कर सके । अवसरादिक मिलने पर उसके लिये जुदा ही प्रयत्न किया जायगा ।
कुन्दकुन्द-समय । (घ) ऊपर-'ग' भागमें-उमास्वातिका समय-सूचक जो पद्य 'विद्वजनबोधक'से उद्धृत किया गया है उसमें कुन्दकुन्दाचार्यको भी उसी समयका विद्वान् बतलाया है जिसका उमास्वाति मुनिको, और इस तरह पर दोनोंको समकालीन विद्वान् सूचित किया है । परंतु इस पद्यके अनुसार दोनोंको समकालीन मान लेने पर भी इनमें वृद्धत्वका मान कुन्दकुन्दाचार्यको प्राप्त था, इसमें संदेह नहीं है । नन्दिसंघकी पट्टाक्लीमें तो कुन्दकुन्दके अनन्तर ही उमास्वातिका आचार्यपदपर प्रतिष्ठित होना लिखा है और उससे ऐसा मालूम पड़ता है मानो उमास्वाति कुन्दकुन्दके शिष्य ही थे । परन्तु श्रवणबेलगोलके शिलालेखमें उमास्वातिका कुन्दकुन्दसे ठीक बादमें उल्लेख करते हुए भी उन्हें कुन्दकुन्दका शिष्य सूचित नहीं किया, बल्कि ' तदन्वये' और 'तदीयवंशे' शब्दोंके द्वारा कुंदकुंदका ' वंशज' प्रकट किया है * | फिर भी यह वंशजत्व कुछ दूरवर्ती मालूम नहीं होता। हो सकता है
* श्रवणबेलगोलके शिलालेखों-नं. ४०, ४२, ४३, ४७ और ५० में"तदन्वये ' पदको लिये हुए यह श्लोक पाया जाता है
अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृदपिच्छः ।
तदन्वये तत्सदशोऽस्ति नान्यस्तास्कालिकाशेषपदार्थवेदी । और १०८ वें शिलालेखका पद्य निम्न प्रकार है
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं मेन जिनप्रणीतं शालार्थजातं मुनिपुंगवेन ॥