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समय-निर्णय ।
प्रायः वृद्धावस्थामें, जब कुमारिल कटाक्ष करता है तब वह समंतभद्रसे कितने पीछेका विद्वान् है और उसे समंतभद्रके प्रायः समकालीन ठहराना कहाँ तक युक्तिसंगत हो सकता है। जान पड़ता है विद्याभूषणजीको कुमारिलके उक्त 'लोकवार्तिक' को देखनेका अवसर ही नहीं मिला। यही वजह है जो वे अकलंकदेवको कुमारिलसे भी पीछेका-ईसवी सन् ७५० के करीबका-विद्वान् लिख गये हैं ! यदि उन्होंने उक्त ग्रंथ देखा होता तो वे अकलंकदेवका समय ७५० की जगह ६४० के करीब लिखते, और तब आपका वह कथन 'अकलंकचरित' के निम्न पद्यके प्रायः अनुकूल जान पड़ता, जिसमें लिखा है कि 'विक्रम संवत् ७०० (ई० सन् ६४३ ) में अकलंक यतिका बौद्धोंके साथ. महान् वाद हुआ है
विक्रमार्क-शकाब्दीय-शतसप्त-प्रमाजुषि ।
कालेऽकलंक-यतिनो बौद्धादो महानभूत् ॥ और भी कितने ही जैन विद्वानोंके विषयमें विद्याभूषणजीके समयनिरूपणका प्रायः ऐसा ही हाल है-वह किसी विशेष अनुसंधानको
१ कुछ विद्वानोंने अकलंकदेवके 'राजन्साहसतुग' इत्यादि पद्यमें आए हुए 'साहसतुंग' राजाका राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथम (शुभतुंग) के साथ समीकरण करके, अकलंकदेवको उसके समकालीन-ईसाकी आठवीं शताब्दीके प्रायः उत्तरार्धका-विद्वान् माना है; परंतु कुमारिल यदि डा. सतीशचंद्रके कथनानुसार धर्मकीर्तिका समकालीन था तो अकलंकदेवके अस्तित्वका समय यह वि. सं. ७..ही ठीक जान पाता है, और तब यह कहना होगा कि 'साहसतुंग' का कृष्णराजके साथ जो समीकरण किया गया है वह ठीक नहीं है । लेविस राइसने ऐसा समीकरण न करके अपनेको साहसतुंगके पहचानने में असमर्थ बतलाया है।
२ यह पद्य, 'इन्स्क्रिप्शन्स ऐट श्रवणबेलगोल' (एपिग्रेफिया कर्णाटिका जिल्द दूसरी ) के द्वितीयसंस्करण, (सन् १९२३) की प्रस्तावनामें, मि. आर. नरसिंहाचार्यके द्वारा उक आशयके साथ उदत किया गया है।