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स्वामी समंतभद्र।
विद्याके आचार्य-होना भी सूचित किया है । इसीसे एडवर्ड राइस साहब भी लिखते हैं
It is told of him that in early life he (Samantabhadra ) performed severe penance, and on account of a depressing disease was about to make the vow of Sallekhand, or starvation; but was dissuaded by his guru, who foresaw that he would be a great pillar of the Jain faith. ___ अर्थात्-समन्तभद्रकी बाबत यह कहा गया है कि उन्होंने अपने जीवन (मुनिजीवन ) की प्रथमावस्थामें घोर तपश्चरण किया था, और एक अवपीडक या अपकर्षक रोगके कारण वे सल्लेखनाव्रत धारण करनेहीको थे कि उनके गुरुने, यह देखकर कि वे जैनधर्मके एक बहुत बड़े स्तंभ होनेवाले हैं, उन्हें वैसा करनेसे रोक दिया ।
यहाँ तकके इस सब कथनसे, हम समझते हैं. पाठकोंको समन्तभद्रके विषयका बहुत कुछ परिचय मिल जायगा और वे इस बातको समझने में अच्छी तरहसे समर्थ हो सकेंगे कि स्वामी समन्तभद्र किस टाइपके विद्वान् थे, कैसी उत्तम परिणतिको लिये हुए थे. कितने बड़े योगी अथवा महात्मा थे, और उनके द्वारा देश, धर्म तथा समाजकी कितनी सेवा हुई है। साथ ही, उन्हें अपने कर्तव्यका भी जरूर कुछ बोध होगा, अपनी त्रुटियाँ मालूम पड़ेंगी; वे अपनी असफलता
ओंके रहस्यको समझेंगे, स्याद्वादमार्गको पहचाननेकी ओर लगेंगे और स्वामी समन्तभद्रके आदर्शको सामने रखकर अपने जीवन, अपने सदुद्देश्यों तथा प्रयत्नोंको सफल बनानेका यत्न करेंगे । और इस तरह पर स्वामीके इस पवित्र जीवनचरित्रसे जरूर कुछ लाभ उठाएँगे।
* 'आभावि तीर्थकरन् अप्प समन्तभद्रस्वामिगलु पुन क्षेगोण्ड तपस्सामध्यदि चतुरंगुल-चारणस्वमं पडेदु रस्नकरण्डकादिजिनागमपुराणमं पेलि स्याहाद-वादिगल् मागि समाधिय् मोडेदरु ॥'