________________
११०
स्वामी समन्तभद्र।
यथेष्ट प्राप्तिके लिये ही उन्होंने वे वेष धारण किये थे। बहुत संभव है कि कांचीमें 'भस्मक' व्याधिकी शांतिके बाद समंतभद्रने कुछ अर्सेतक
और भी पुनर्जिनदीक्षा धारण करना उचित न समझा हो, बल्कि लगे हाथों शासनप्रचारके उद्देशसे, दूसरे धर्मोके आन्तरिक भेदको अच्छी तरहसे मालूम करनेके लिये उस तरह पर भ्रमण करना जरूरी अनुभव किया हो और उसी भ्रमणका उक्त पद्यमें उल्लेख हो, अथवा यह भी हो सकता है कि उक्त पद्यों समंतभद्रके निप्रैथमुनिजीवनसे पहलेकी कुछ घटनाओंका उल्लेख हो जिनका इतिहास नहीं मिलता और इस लिये जिनपर कोई विशेष राय कायम नहीं की जा सकती। पद्यमें किसी क्रमिक भ्रमणका अथवा घटनाओंके क्रमिक होनेका उल्लेख भी नहीं है; कहाँ कांची और कहाँ उत्तर बंगालका पुण्ड नगर ! पुंड्से वाराणसी निकट, वहाँ न जाकर उज्जैनके पास 'दशपुर' जाना और फिर वापिस वाराणसी आना ये बातें क्रमिक भ्रमणको सूचित नहीं करती। हमारी रायमें पहली बात ही ज्यादा संभवनीय मालूम होती है। अस्तु, इन सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए, ब्रह्म नेमिदत्तकी कथाके उस अंशपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता जो कांचीसे बनारस तक भोजनके लिये भ्रमण करने
और बनारसमें भस्मक व्याविकी शांति आदिसे सम्बंध रखता है, खासकर ऐसी हालतमें जब कि 'राजावलिकथे' साफ तौरपर कांचीमें ही
पिण्डः ' और दूसरेपर 'पाण्डुरोगः' पद आए हैं जो दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं और उनसे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रने जो वेष वाराणसीमें धारण किया है धही लाम्बुशमें भी धारण किया था। हर्षका विषय है कि उन लेखकोंमेंसे प्रधान लेखकने हमारे लिखनेपर अपनी उस भूलको स्वीकार किया है और उसे अपनी उस समयकी भूल माना है।