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________________ मुनि-जीवन और आपत्काल । १०७ 'भस्मकन्याधिविनाशाहारहानित:' ऐसा सूचित किया गया है जो पर्याप्त नहीं है। दूसरे, यह बात भी कुछ असंगतसी मालूम होती है कि ऐसे गुरु, स्निग्ध, मधुर और श्लेष्मल गरिष्ठ पदार्थोंका इतने अधिक (पूर्ण शतकुंभ जितने ) परिमाणमें नित्य सेवन करनेपर भी भस्मकानिको शांत होनेमें छह महीने लग गये हों। जहाँ तक हम समझते हैं और हमने कुछ अनुभवी वैद्योंसे भी इस विषयमें परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थितिमें अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालतमें पैदलका इतना लम्बा सफर ही बन सकता है । इस लिये, 'राजावलिकथे' में जो पाँच दिनकी बात लिखी है वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती । तीसरे, समंतभद्रके मुखसे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये हैं वे बिलकुल ही अप्रासंगिक जान पड़ते हैं। प्रथम तो राजाकी ओरसे उस अवसरपर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता है-वह अवसर तो राजाका उनके चरणोंमें पड़ जाने और क्षमा प्रार्थना करनेका थादूसरे समंतभद्र, नमस्कारके लिये आग्रह किये जानेपर, अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे 'शिवोपासक' नहीं हैं बल्कि जिनोपासक' हैं, फिर भी यदि विशेष परिचयके लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तरमें समन्तभद्रकी ओरसे उनके पितृकुल और गुरुकुलका परिचय दिये जानेकी, अथवा अधिकसे अधिक उनकी भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति और उसकी शांतिके लिये उनके उस प्रकार भ्रमणको कथाको भी बतला देने की जरूरत थी; परंतु उक्त दोनों पद्योंमें यह सब कुछ भी नहीं है न पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और न भस्मकन्याधिकी उत्पत्ति आदिका ही उनमें कोई जिकर है-दोनोंमें
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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