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स्वामी समन्तभद्र।
'राजावलिकये' में शिरकोटिका जिस ढंगसे उल्लेख पाया जाता है
और पट्टावली तथा शिलालेखों आदि द्वारा उसका जैसा कुछ समर्थन होता है उस परसे हमारी यही राय होती है कि 'शिवकोटि' नामका अथवा उस व्यक्तित्वका कोई राजा जरूर हुआ है, और उसके अस्तित्वकी संभावना अधिकतर कांचीकी ओर ही पाई जाती है; ब्रह्मनेमिदत्तने जो उसे वाराणसी ( काशी-बनारस ) का राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता । ब्रह्म नेमिदत्तकी कथामें और भी कई बातें ऐसी हैं जो ठीक नहीं अँचती। इस कथामें लिखा है कि
"कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करनेके लिये समर्थ (स्निग्वादि) भोजनोंकी सम्प्राप्तिका अभाव था, इस लिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर उत्तरकी ओर चले दिये । चलते चलते वे 'पुण्ड्रेन्द्र नगर' में पहुँचे, वहाँ बौद्धोंकी महती दानशालाको देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया, परंतु जब वहाँ भी महाव्याधिको शांतिके योग्य आहारका अभाव देखा तो आप वहाँसे निकल गये और क्षधासे पीडित अनेक नगरोंमें घूमते हुए 'दशपुर' नामके नगरमें पहुँचे । इस नगरमें भागवतों (वैष्णवों) का उन्नत मठ देखकर ओर यह देखकर कि यहाँपर भागवत लिङ्गधारि साधुओंको भक्तजनोंद्वारा प्रचुर परिमाणमें सदा विशिष्टाहार भेट किया जाता है, आपने बौद्ध वेषका परित्याग किया और भागवत वेष धारण कर लिया, परंतु यहाँका विशिष्टाहार भी आपको भस्मक व्याधिको शांत करनेमें समर्थ न हो सका
'पुण्डू' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी कहते हैं । 'पुण्ड्रेन्द्र नगर से उत्तर बंगालके इन्द्रपुर, चन्द्रपुर अपवा चन्द्रनगर आदि किसी खास सहरका अभिप्राय जान पड़ता है। छपहुए 'आराधनाकथाकोश में ऐसा ही पाठ दिया है। संभव है कि वह कुछ अशुद्ध हो।