________________
( ४ ) बहुत ही प्रशंसा की है। पूज्य मुनिराज श्रीलब्धिमुनिजी ने युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि और दादा श्रीजिनकुशलसूरि इन दोनों प्रन्यों के आधार पर संस्कृत काव्यों का भी निर्माण किया है। परहने समाज की ओर से जैसा चाहिए उत्साह नहीं मिला। फिर भी कमण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन की सुप्रसिद्ध उक्ति के अनुनार हम अपने कर्तव्य-मार्ग पर रद है और यह ग्यारहवां पुष समाज की सेवा में इस आशा के साथ रत रहे है कि सभी न कभी समाज में जागृति होगी ही।
श्रीमणिधारीजी का चरित्र बहुत ही संक्षिा निलता है एवं उस समय का अन्य इतिहास भी प्रायः अंधकारमय है। अत. बहुत कुछ अन्वेषण करने पर भी हम इस चरित्र को मनोनुकूल नहीं बना सके। पुस्तक छोटी हो जाने के कारण उनके रचित व्यवस्था-बुलक को भी सानुबाद इसमें प्रकाशित किया जा रहा है। साथ ही इसका नहत्व इसलिये भी अधिक है कि आचार्यश्री की यही एकमात्र कृति हमें उपलब्य है। इसकी एक पत्र की प्रति यति श्रीमुकुन्दचन्दजी के संग्रह में मिली थी व दूसरी जैसलमेर भंडार की प्रति से यति लक्ष्मीचन्दजी नकल कर के लाये । उसले हमने मिलान तो कर लिया था पर जैसलमेर भंडार की मूल ताडपत्रीय प्राचीन प्रति के न मिल सकने के कारण पाठ-गुद्धि ठीक नहीं हो सकी है। पूज्य मुनिराज श्रीकवीन्द्रसागरजी ने जनसाधारण के लिये इसको अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्य ले इसकी संस्कृत