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________________ ५८ मणिधारी श्रोजिनचन्द्रमूरि नोदनमपि खलु स ददाति यो दातुं जानाति तकन। परटुर्वचनं श्रुत्वा यो रोपेण न नीयते ॥ ४० ॥ अर्थ-दूसरे के दुचनो को सुन कर जो रोप में पूर्ण नहीं हो जाता वही महापुरुष दूसरों को बर्म में प्रेरणा करता है और प्रेरणा करना भी जानता है। नाहंकारं करइत्ति मायामोहवित्रजिओ। सव्वंजीवहियं चित्तं जस्सत्यि मुविवेयओ ॥७॥ नाहंकारं करोतीति मायामोहविवर्जितः । सर्वजीवहितं चित्ते यस्यास्ति सुविवेकतः १७१॥ अर्थ-जिसके चित्त मे मुवित्रक से सब जीवों का हित रहा हुआ है। वह मायामोह से रहित व्यक्ति कभी अहकार को नहीं करता । जा कात्रि गुरुणो आणा सुद्धसद्धम्मसाहिगा। कहिया हियाय सम्म कायन्या विहिणा य सा ।। ७२ ॥ या कापि गुरोराना शुद्धसद्धर्मसाधिका। कथिता हिताय सम्यक् कर्त्तव्या विधिना च सा ॥७२॥ अर्थ-शुद्ध सद्धर्म को साधने वाली जो कुछ भी गुरु महाराज को आना श्री हित के लिये कही है। हितपियों के विधिपूर्वक उसे पालनी चाहिये। संखेवण मिहत्तमागममयं गीयत्थसत्योचियं, कीरंतं गुणहेउनिव्वुडकर भव्वाण सन्वेसि ।
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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