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________________ ४८ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि mmmmmmmmmmmmmmmmm अर्थ-तथोक कामों को करनेवाले धोरमुधावक कहीं पर कुछ भी माधुओं के लिये जो कल्पनीय होता है, उसे साधुओं को बिना दिये नहीं भागते हैं। चमहीसयणासणभत्तपाणवत्थ पत्ताई । जवि न पज्जत्तधणोथोवा वि हुथोवयं देह ॥४४॥ वसति-सयना-सन भक्तपान वस्त्रपात्राणि । यद्यपि न पर्याप्तधनः स्तोकादपि स्तोकं देयात् ।। ४४॥ अर्थ यद्यपि श्रावन पर्याप्त धनवाला न होने पर भी वमति स्थान गव्या सथारा आसन भात-पानी-औषध-वस्त्र-पात्र आदि योडे से भी थोड़ा दे। एगं विसोवगं सड्ढो तिसु ठाणेसु देह जो। अहिंगं वा ऊसवाइसु सम्मत्ति होइ नन्नहा ॥४॥ एतद् विसोपकं (भागं) श्राद्धस्त्रिपु स्थानेषु ददाति यः । अधिकं वा उत्सवादिषु सम्यक्त्वी भवति नान्यथा ।।४।। अर्थ-तीन स्थानों में टेव गुल्जान द्रव्यों की मद में श्रावक एक हिस्सा है। टलबादिकों में अधिक भी है। अन्यथा सम्यक्ती नहीं हो सकता। अग्गाहणं तु जम्मो य नामाकरण मुंडणं । पुत्ताइसु विवाहो य हवंति उस्सवा इमे ॥ ४६ ॥
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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