SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मांगवारी श्रीजिनचन्द्रसरि श्रावनाः श्राविकाच वा गुरुत्वावधनादिकम् । जं न वाञ्छन्ति ते दातुं वृत्तमपि गुन्भ्यः पुरा ।।३८॥ अर्थ- धाक और अत्रिएं गुरना के समय दिया हुआ भी बर्दिक-ईल्या होने देने के नहीं चाहते हैं। ते कहं तसिं आणाए बट्टति समईवसा । चत्ता सम्मत्त वत्ता वि दूरं सातहिं सब्बहा ॥३६॥ युग्म ते कथं तपानाबायां वर्तन्त स्वमतिवशाः । त्यता सन्यत्ववातापि-दूरात्सतः सर्वथा ॥३६ ।। अर्थ-टर बनाये लच्छन्द शव अधिक टन गुरुओं की भाना में नग! उस सन्यन्त्र वान के भी दूर से ही टनने तथा लाग दी है। युन्न सावया तुच्छवित्ता वि पोसंति सकुडुंबयं । धण धन्नात्रओगेण, जावजी पि सायरं ॥४०॥ श्रावत्रानुचविचा अपि पोपयंति स्वछुट्टत्वकम् । धनवान्योपगगन-यावनीवमपि सादरम् ॥ ४॥ -अन्य धन बल भी थावत्र वन-धान्योपोग के प्रश्न पूर्वक स्पन युटुन्ज को न पन्त पोपडे हैं।
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy