SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवस्था-शिक्षा-कुलस्म् साहू वा साहुणीओ वा कारित्ता नाणपूअणं । गिण्हंता सयं जंति आणा भट्टाय दुग्गई ॥ ३० ॥ साधवो वा साध्न्यो वा कारयित्वा ज्ञानपूजनम् । गृहन्तः स्वयं यान्त्या-नाभ्रष्टाच दुर्गतिम् ॥ ३० ॥ अर्थ-- साधु और माचिये ज्ञानपूजा कराके स्वय ग्रहण करते है तो वे आवाभ्रष्ट हो कर दुर्गति में जाते हैं । सञ्जओ सञ्जई सट्टो, सड्ढी वा कलहं करे । चुकं ति दसणाओ ते होउं तइपभावगा ॥ ३१ ॥ संयतः संयती श्राद्धः श्राद्धी वा कलहं नियात् । भ्रश्यन्ति दर्शनात्ते-भूत्वा तदप्रभावकाः ॥३१॥ अर्य-साधु, साधी, श्रावक और श्राविका यदि एक दूसरे से क्लह करते हैं तो वे मम्यपत्य से भ्रष्ट होते हैं और ये शासन को होलणा फरनेवाले होते है। गिहीणं जे उ गेहाओ, आणित्तासणपाणगं । निकारणं विच्छडंता, जंति ते सुगई कहं ॥ ३२ ॥ गृहिणा ये तु गृहा-दानाय्यासनपानकम् । निष्कारणं क्षिपन्तो यान्ति ते सुगतिं कथम ।। ३२ ।। अर्थ- जो साधु माधी गृहन्धी के घर में अमण पान आदि सातार को ला करके अकारण ही पंक देते हैं ये गे मुगति में जा गाते है ?
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy