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अथ श्री संघपट्टक
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अर्थ:-वली ते श्रोता केवो दोय तो विनीत होय एटले गुरु आदिक प्राप्त थये बते उतुं थq इत्यादि विनय करवानी लालसा वालो, केम जे गुरुमहाराज विनीत शिष्य नणीज सिझांतर्नु तत्व श्रापे .
टीकाःयदुक्तं ॥ विणयन्नयंमि सीसे दिति सुश्र, सूरिणो किमहरियं ।। कोवा न दे जिक्खं किं पुण सोवनिए थाले।
अर्थः-शास्त्रमा कडं ने विनयनो जाण एटले विनयनो करनार एवो शिष्य, ते जणी आचार्य सिकांत आपे डे एमां शुं श्राश्चर्य जे दृष्टांतः-जेम कोई मोटो पुरुष सोनानो थाल लश्ने निक्षा मागवा आवे तो तेने कोण न आपे अर्थात् सर्वे श्रापे तेम ॥ .
टीकापुर्विनीताय पुनर्न किंचिउपदिशति ॥ यदुक्तं ॥ सेहंमि पुब्विणीए विणयविहाणं न किंचि श्राश्के ॥ न यदिजाश्थाहरणं पलियंचियकनहत्थ्यस्स ॥ - अर्थ:-अने विनीत शिष्य नणी श्राचार्य का उपदेशन करे जे हेतु माटे शास्त्रमा कडं जे विनीत शिष्य नणी विनय विधानादि कांश पण नथी कहेता.ते उपर दृष्टांतः-जेम ठेदन थया डे कान हाथ जेना एवा पुरुष प्रत्ये शोनाने अर्थे श्रान्तरण नथी आपता तेम.
टीका:-तथा श्रश इति ॥ ऋजुस्वन्नावः॥ गुर्वादिषु जीविकानिरपेक्षप्रवृत्तिरित्यर्थः ॥ शगे हि न विद्यायोग्यः॥ यतो ऽविनीताय लुब्धायाऽनृजवे न मां ब्रूयादिति विवाहेति ॥
अर्थः-वली ते श्रीता पुरुष केवो होय ? तो अशठ एटखे सरल स्वन्नावी गुर्वादिकने विषे आजीविकादिकनी अपेक्षारहित