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________________ (३८) - अथ श्री संघपक: ran.. ManavAAAAAAAAAmmam - - अर्थः-त्यार पनी जगवानना मस्तक उपर थालसरहित अंतरायरहित पापीनी धारा पानी ते जाणे दुःसह पाणष्टि पमी होय नहि शुं एम जणाती ।। ६ ॥ टीका:-जिनदेहं ततः स्पृष्टाव ते खुतिस्म भूतसे ॥ अंतः समुच्चरद्ध्यानमरुता विधुता श्व ॥ ७ ॥ . अर्थः-त्यार पड़ी ते जलधारा पार्श्वनाथजीना देहनो स्पर्श करीने भूतलमां लोटी पनी एटले पृथ्वीमां पसरी, ते जाणे अंतरने विषे रुमे प्रकारे चालतुं जे ध्यान ते रूपी वायुवमे तिरस्कार पामी होय ने शुं ? एम हेवल (नीचे) पमी ॥ ७ ॥ टीका:-नीरन्धं नीरधारानिः पातुकानिः समंततः॥ एकावे श्वाभूतां युगांतश्व रोदसी ॥ ७ ॥ अर्थ:-त्यारपडी घामपणे निरंतर चारे पास परती पाणीनी धाराउए जेम युगांत कालमां श्राकाश पृथ्वी एक समुजमय थाय तेम सर्व जलमय ययुं ॥ ७ ॥ टीका-सोऽजितो जिनमप्पूरोऽनियः क्षीरोदसोदरः ॥बजार तनुजानिनः कालोदजलधिश्रियम् ॥ ए.॥ अर्थ:-जिननीचारे पास मेघमाथी पमतो ने कीर समुन जेवो ते पाणीनो समूह पार्श्वनाथजींनी काली कांतिवमे मिश्रथयो माटे तेणे कालोद नामे समुज्नी शोना धारण करी ॥७॥ टीका:-तमालकालजीमूतनिष्टयूतः पयसां रयः ॥ स वरीवृध्यते मोर्ध्व नारं सारं जुवं तथा ॥ ७० ॥ यथा जगवतः कंचमारोह निरंकुशासंपद्यतेऽपकाराय नीचगामी हुपेक्षितः।।
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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